श्रीकृष्ण लीला में जो विलास मंजरी हैं, वे ही श्री चैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्री जीव गोस्वामी हैं।

श्रीकृष्ण लीला में जो विलास मंजरी हैं, वे ही श्री चैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्री जीव गोस्वामी हैं।
एक बार श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के निर्देश से श्रीजगदीश पण्डित प्रभु, नीलाचल गये थे। श्रीधाम पुरी में श्रीजगन्नाथ जी के दर्शन कर आप प्रेम में आप्लावित हो गए तथा वहाँ से लौटते समय आप श्रीजगन्नाथ जी के विरह में व्याकुल हो गए। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण, श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री जगन्नाथ जी एक ही तत्त्व हैं। आपके विरह की अवस्था को देखकर श्रीजगन्नाथ जी ने स्वप्न में आपको सान्त्वना देते हुए कहा की आप चिन्ता न करें, मैं स्वयं आपके साथ चलूँगा । और आप मेरे श्रीविग्रह को लेकर उसकी सेवा करें।
श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में बताया कि भगवद् भक्ति बहुत फायदेमंद है।
कहते हैं कि भक्ति की उच्च स्थिती को प्राप्त करके और कुछ चाहने की इच्छा ही नहीं रहती। अन्य सुख छोटे लगने लगते हैं। ध्रुव जी भगवान की तपस्या करने गये इस इच्छा से कि मैं पिताजी से भी बड़ा राज्य प्राप्त करूँगा। हो सकता है कि पिताजी अपना राज्य मेरे भाई उत्तम को दे दें, अतः मुझे उससे बड़ा राज्य का राजा होना चाहिए।
जब भगवान के दर्शन हुए, इतना आनन्द हुआ कि उन्हें राज्य की इच्छा तुच्छ लगने लगी। भगवान के दर्शन उन्हें स्पर्श मणि और राज्य की इच्छा काँच के समान लगने लगी। वे बोले - भगवन् ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।
श्रीभगवान -- बेटा वर माँगो! तुम शायद भूल गये कि मुझसे बड़ा राज्य माँगने के लिए तुमने तपस्या की थी।
ध्रुव जी -- हे प्रभो! मुझे सब याद है। किन्तु आपका दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो गया हूँ। मुझे कुछ नहीं चाहिए।
ये ऐसा राज्य है जहाँ जो भक्ति कि उच्च स्थिति में आ जाता है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ऐसा श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने अपनी टीका में लिखा। जब वो कुछ कार्य करने का संकल्प लेता है तो गुरू-वैष्णव-भगवान उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। जहाँ पर गुरू-वैष्णव-भगवान आ जायें, वहाँ पर तो असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रील ठाकुर ने बोध कथा बताई कि एक छोटी सी चिड़िया थी। उसने समुद्र के किनारे अण्डे दिये। अब समुद्र में लहरें तो आती ही रहती हैं। लहरें आईं और अण्डों को बहा कर ले गईं। चिड़िया जब चुग कर वापिस आई तो उसने देखा अण्डे नहीं है। उसने वहाँ पर अन्य चिड़ियों से बात-चीत कर जानना चाहा कि उसके अण्डे कहाँ चले गए?
उन्होंने कहा कि यह स्थान क्या अण्डे देने का है? समुद्र की लहर आई होगी, अण्डों को ले गई होगी।
चिड़िया -- समुद्र मेरे अण्डे क्यों लेगा? मैंने तो उसे कभी परेशान नहीं किया? वो मुझे क्यों परेशान करेगा?
वो समुद्र के किनारे गई, अपनी भाषा में अपने अण्डे माँगती रही।
समुद्र को क्या फर्क पड़ना था।
चिड़िया को गुस्सा आ गया और उसने कहा कि मैं इतनी देर से दुहार लगा रही हूँ, अब मैं तुम्हें सुखा दूँगी।
चिड़िया चोंच में पानी लेती है, रेत में डाल देती कि समुद्र सुखा दूँगी। सौभाग्य से नारद जी वहाँ आ गये। उन्होंने चिड़िया को ऐसा करते देख उससे बातचीत की। (नारद जी सारी भाषायें जानते हैं)
नारद जी -- अरे इसको कहाँ सुखा पाओगी?
चिड़िया -- देखो महाराज! आप मेरी कुछ सहायता कर सकते हैं तो करो, किन्तु मेरा समय खराब नहीं करो।
चिड़िया पानी लेती है और रेत में डाल देती है।
नारद जी को उसकी दृड़ता व संकल्प पर दया आ गई। सीधा गरुड़ जी के पास जा पहुँचे। उन्हें सारी बात बताई और कहा कि उसकी सहायता करो।
गरुड़ जी तुरन्त आ गये। आते ही समुद्र पर ज़ोर से हाथ मारा।
साधारणतयः देखा जाता है कि व्यक्ति सामने वाले की ताकत से ही डरता है। समुद्र उसी वक्त प्रकट हो गया, जब उसने सुना कि गरुड़ जी कह रहे हैं - अरे समुद्र, इस चिड़िया के अण्डे वापिस कर नहीं तो मैं अपने पंखों से तुझे सुखा दूँगा।
समुद्र ने तुरन्त अण्डे लौटा दिये।
हालांकि चिड़िया के बस की बात नहीं थी किन्तु जब उसे नारद जी जैसे वैष्णव का साथ जब मिला तो गरुड़ जी खड़े हो गये, और चिड़िया का काम बन गया।
अर्थात् जब कोई भक्त कोई संकल्प ले लेता है तो गुरू-वैष्णव-भगवान उसके असंभव लगने वाला कार्य भी सम्भव कर देते हैं।
अतः भगवद् भक्ति से किसी का घाटा नहीं होता।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि भगवद् भक्त के पास दुःख फटकता ही नहीं और कभी आ भी जाए तो उसे एहसास ही नहीं होता क्योंकि वो सदा ही आनन्द में रहता है। इतना तृप्त रहता है कि उसे कोई इच्छा ही नहीं होती।
भजन करना घाटे का सौदा नहीं है। भजन करने वाला माला माल हो जाता है। शरणागति के साथ भजन करने वाले को हरि-भक्ति माला-माल कर देती है। हरि भक्ति करते हुए व्यक्ति ऐसी स्थिति पर पहुँच जाता है कि वो तृप्त हो जाता है, आनन्द से भर जाता है।
इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति को लगता है कि इससे श्रेष्ठ कुछ और है ही नहीं। एक बार की बात है। एक व्यक्ति महान भक्त श्रील सनातन गोस्वामी जी के पास आया व बोला - मुझे भगवान केदारनाथ जी (शिव जी महाराज जी) ने भेजा है। उन्होंने कहा था कि धन चाहिए तो सनातन गोस्वामी के पास चले जाओ।
सनातन गोस्वामी जी -- भाई! एक समय तो मेरे पास धन था। मैं प्रधान मन्त्री था तब आते तो मैं तुम्हें माला-माल कर सकता था, किन्तु अब तो मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है।
वो व्यक्ति -- जी हाँ, मैं यह देख पा रहा हूँ।
इतना कहकर वो लौट गया।
कुछ ही देर में श्रील सनातन गोस्वामी जी को याद आया कि उनके पास एक स्पर्श मणि थी। उन्होंने शीघ्रता से उस व्यक्ति को बुलाया और कहा कि मेरे पास एक पारस मणि थी, मुझे याद नहीं कि कहाँ पर रखी थी, उसे ढूँढ सको तो ले जाओ। बहुत ढूँढने पर पारस मणि कबाड़ में पड़ी मिल गयी।
उस व्यक्ति ने उस मणी को लोहे को छुआ, वो सोने कें परिवर्तित हो गया। यह देख वो प्रसन्न हो गया कि मेरे जैसा संसार में धनी नहीं हो सकता। मैं लोहा खरीदूँगा और सोना बनाऊँगा। वो खुशी से नाचने लगा।
श्रील सनातन गोस्वामी जी को बहुत धन्यवाद देता हुआ, वो वहाँ से चला निकला।
श्रील सनातान गोस्वामी जी की कृपा से, श्री शिव जी महाराज जी की कृपा से उसका मन बदल गया, कुछ दूर जाकर सोचने लगा कि इतनी दुर्लभ पारस मणि, श्रीसनातन गोस्वामी जी ने फेंकी हुई थी और उन्हें याद भी नहीं था कि कहाँ फेंकी हुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि उनके पास इससे भी बड़ा धन है। कौन सा धन है उनके पास? वो लौटा।
सारी बात श्रील सनातन गोस्वामी जी को कही।
श्रील सनातन गोस्वामी जी ने कहा -- हाँ! वो तो है। हरिनाम ऐसा धन है जिसके आगे सभी धन तुच्छ हैं।
श्रील सनातन गोस्वामी जी के दर्शन से ही उसका मन परिवर्तित हो गया। उसने कहा - प्रभो! मैं भी यह धन चाहता हूँ जिसके आप धनी हैं।
श्रीसनातन गोस्वामी जी -- यदि यह धन चाहिए तो पारस मणि तो यमुना में फेंक दो।
उसके वैसा ही किया और उसके बाद हरिनाम का रसास्वादन किया।
भगवद् भजन करने से, उसका रसास्वादन हो जाता है तो पिछ्ले कर्मानुसार अथवा कोई दुःख उसके पास भी आ जाये तो भी वो विचलित नहीं होता।
ना सुख, ना दुःख्…………वो तो भगवान की सेवा में ही लीन रहता है।