नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम जी के साथ एक बालक के रूप में भक्तों के साथ वृज में रह रहे हैं।
सभी गोपियाँ बड़े ध्यान से देखतीं कि यशोदा मैया कैसे अपने लाला को सजाती हैं, संवारती हैं, यशोदा जी के लाला को देखते ही उस पर प्यार उमड़ा आता गोपियों का।
उनकी इच्छा भी होती कि हम भी लाला को अपनी गोद में उठायें, उसे दुलारें, उसे प्यार करें। श्रीकृष्ण तो भक्त-वत्सल हैं, अपने भक्त की हर प्रकार की इच्छा को पूरा करते हैं। उनके हृदय की इच्छा होती है कि मेरा भक्त कुछ चाहे और मैं उसे पूर्ण करूँ, जिससे उसका कल्याण हो।
जब भी कभी वो गोपियाँ श्रीकृष्ण के पास होतीं, जिनके मन में श्रीकृष्ण को गोद में खिलाने की इच्छा होती, तो श्रीकृष्ण रोने लगते। ऐसे रोते कि किसी भी तरीके से चुप ही नहीं होते।
ऐसे में यशोदा मैया उन्हीं गोपियों से कह देंती कि इसको उठाओ और इसे चुप कराओ।
गोपियाँ शीघ्रता से कन्हैया को उठातीं, प्यार से दुलारतीं, पुचकारतीं और उन्हें चुप कराने की भरपूर चेष्टा करतीं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण उनकी इच्छा को पूर कर देते।
श्रील रूप गोस्वामी जी ने वर्णन किया कि श्रीकृष्ण के स्पर्श से ही गोपियों के हृदय में आनन्द की लहर दौड़ जाती। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि अकारण प्रसन्नता का क्या कारण है?
एक गोपी ऐसी भी थी जिसकी इच्छा थी कि कोई आस-पास न हो और नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को मैं ही उठाऊँ।
ऐसे में एक दिन नन्हें गोपाल घुटनों के बल रेंगते हुए बाहर बरामदे में चले आये। उस गोपी ने लाला को पालने में न देख, मैया को पूछा -- लाला कहाँ है?
मैया ने भी इधर-उधर देखा और कहा कि अभी तो यहीं था, ढूँढो उसे।
कहाँ गया?
सभी ढूँढने लगे।
वो गोपी ढूँढते हुए बाहर बरामदे में आ गई और देखा कि नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण वहीं पर हैं।
वहीं से बोली-- मिल गया, लाला मिल गया।
मैया-- अरी, तो जल्दी से भीतर ले आ उसे।
गोपी ने श्रीश्यामसुन्दर को उठाया, प्यार से दुलारा, पुचकारा और अन्दर ले गयी।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने उसकी वो इच्छा पूरी कि कोई भी न हो केवल मैं ही लाला को दुलारूँ।
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