शनिवार, 3 नवंबर 2018

किसे सुख का अनुभव होता है?

जो अपने जीवन को वृथा ही व्यतीत करना चाहते हैं तथा स्वेच्छाचारी होकर ही चलना चाहते हैं, उन्हें सद्गुरु का चरणाश्रय ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है। जो अपनी गलतियों व अनर्थों को अनुभव कर सकते हैं एवं उनसे मुक्त होकर श्रीभगवद् - प्रेमानन्द के अधिकारी होने के इच्छुक हैं, केवल वे ही भगवद् - प्रेमिक साधु - भक्तों के आश्रय में रहते हैं। 

जो भगवान के अनन्य-भक्तों के आश्रय में, उनके आदेशों व उपदेशों के अनुसार चलते हुए अपनी स्वेच्छाचारिता को छोड़कर, इन्द्रियों को दमन करते हुए भगवान की सेवा में नियोजित रहते हैं, वे ही सुख का अनुभव कर सकते हैं।
जो केवल बाहर से श्रीगुरुपदाश्रय का अभिनय करते हुए स्वयं को नियन्त्रित व संशोधित (सुधार) करने का छल मात्र करते हैं किन्तु आन्तरिक रूप से अपने पूर्व अर्जित कुसंस्कारों व कुप्रवृतयों का पोषण करने में ही यत्नशील हैं, वह गुरुपदाश्रय के नाम पर अपने शिष्य बनाते हैं और उन शिष्यों के द्वारा निज स्वार्थों की पूर्ति के लिये प्रयासरत रहते हैं,ऐसे दम्भी या कपटी व्यक्तियों का मंगल होना बहुत दूर की बात है।

स्वयं शासित होने या नियन्त्रित होने के लिए ही शिष्यत्त्व ग्रहण करना होता है। 'अपना परमार्थ मैं अधिक जानता हूँ '-- इस प्रकार के अभिमान को लेकर केवल बाहरी रूप से श्रीगुरु-पदाश्रय करना विडम्बना, आत्मवन्चना व दूसरों के साथ छल करना मात्र है।


शुद्ध गौड़ीय वैष्णव इन सब की अपेक्षा उदार व सर्वोत्तम मंगल प्रदान करने वाले होते हैं। यदि हम उनके जीवन के आदर्शों का कोई  एक पहलू भी समझने की योग्यता प्राप्त कर सकें तो हम परमोल्लासित होकर साधन-भजन में तत्पर हो सकते हैंं।

-- श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज 'विष्णुपाद' जी के लेखों से।

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