शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

श्रीविष्णु को श्रीकृष्ण में समाते देख…………

भगवान श्रीकृष्ण के आने से बहुत पहले यदु वंश में श्रीदेवमढ़ जी मथुरा में रहते थे। उनकी दो पत्नियाँ थीं - पहली क्षत्राणी थी व दूसरी वैश्य जाति की थी।


पहली पत्नी से पुत्र हुए 'श्री शूर' और दूसरी से हुये 'श्री पर्जन्य'।

इन्हीं शूर के पुत्र हुए श्री वसुदेव।

पर्जन्यजी अधिकतर गो पालन का कार्य संभालते थे व महावन में रहते थे। कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा, इत्यादि वैश्य जाति के ही कार्य हैं। उनकी पत्नी का नाम था श्रीमती वरीयसी। उनके पुत्र थे श्री उपानन्द, श्री अभिनन्द, श्री नन्द, श्री सन्नन्द व श्री नन्दन। उनकी दो बेटियां थीं - श्रीमती नन्दिनी व श्रीमती सुनन्दा। श्रीनन्द का विवाह सुमुखजी की पुत्री श्रीमती यशोदा से हुआ था।

समय पर श्रीपर्जन्य ने अपने सबसे बड़े पुत्र श्रीउपानन्द को अपने वंश का प्रधान बनाने की
इच्छा व्यक्त की। उस सभा में श्रीवसुदेव जी, श्री गर्ग मुनि, इत्यादि भी थे। पिता की बात सुनकर श्रीउपानन्द ने अपने छोटे भाई श्रीनन्द को पास बुलाकर उनका राज-तिलक कर दिया। तब से श्री नन्द, गोकुल के नन्द महाराज हो गये।

इससे श्रीनन्द को बहुत संकोच हुआ और बाकी सब को बहुत आश्चर्य हुआ।

किन्तु श्रीउपानन्द के कहने पर, सब उनके निर्णय से सहमत हो गये।

श्रीपर्जन्य व श्रीमती वरीयसी वृन्दावन चले गये व श्रीनन्द महाराज अपने भाइयों के आनुगत्य में गोकुल का कार्य-भार संभालने लगे।

समयानुसार सभी वृद्ध हो गये, लेकिन वृज के राज-कुमार होने की चाह सबके हृदय में थी।

कई प्रकार के यज्ञ, अनुष्ठान किये गये, किन्तु कोई नतीजा नहीं आया।

उन दिनों पृथ्वी पर बहुत से आतंकी, घमण्डी राजाओं का राज्य था। उन सबके अत्याचार पृथ्वी को अच्छे नहीं लगते थे। उनके पापों के भार से लदी पृथ्वी ब्रह्माजी के पास गयी। अपनी बिगड़ी हालत के बारे में बताया। सारी बात सुनकर ब्रह्माजी, शिवजी आदि देवताओं को लेकर पृथ्वी के साथ क्षीरसागर के तट पर गए। वहाँ पर उन्होंने परम-पुरुष भगवान श्रीविष्णु की स्तुति आरम्भ
की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी ध्यान में चले गये। 

उसी अवस्था में उन्होंने भगवान की वाणी सुनी।

भगवान विष्णु सबको साथ लेकर गोलोक वृन्दावन गये।

गोलोक वृन्दावन की अपूर्व शोभा। वहाँ हरे-भरे बहुत विशाल गिरिराज गोवर्धन, कल्प वृक्ष तथा कल्प लताओं से भरा था वो प्रदेश। यमुना जी स्वछन्द गति से बह रही थीं। वैदूर्य मणि से निर्मित सुन्दर सीढ़ीयां थीं, सुन्दर पक्षी, भ्रमर, वंशीवट, इत्यादि सब था।

वृन्दावन के बीच में बत्तीस वनों से युक्त एक निज निकुन्ज था। एक ओर लाल रंग वाले अक्ष्य-वट थे। मणियों से बनीं दीवारें और आंगन। भ्रमरों की आवाज़ें संगीत बिखेर रही थीं। मत्त मयूर और कोयल अपने गीत गा रहे थे। बालसूर्य के समान कान्तिमान ललनायें, रत्न-जड़ित आँगन में भागती फिर रहीं थीं। गले में हार, बहूं में केयूर, नूपूरों की झन्कार,  मस्तक पर चूड़ामणि, पहने थीं। बहुत गायें भी थी वहाँ। उजली, काली, हरी, लाल, पीली, इत्यादि रंगों की गायें। उनकी रक्षा के लिये बहुत से चरवाहे भी थे, जिनके हाथ में छड़ी व बांसुरी थी। सभी श्याम रंग के थे। 

वहीं पर एक हज़ार पंखुड़ी वाला कमल था। उसके ऊपर 16 पंखुड़ी वाला कमल, उसके ऊपर 8 पखुड़ी वाला कमल था। उसके ऊपर एक कौस्तुभ मणियों से जड़ा सिंहासन था जिस पर भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमती राधाजी बैठे थे। 

सबके देखते ही देखते श्रीविष्णु आगे बढ़े और श्रीकृष्ण में विलीन हो गये। उसी समय श्रीनृसिंह, श्रीविराट पुरुष, श्रीराम, श्रीनर-नारायण, इत्यादि सब आये और श्रीकृष्ण में विलीन हो गये।

यह देख कर देवताओं ने उनकी स्तुति शुरु कर दी।

भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा - मैं शीघ ही पृथ्वी पर अवतरित होऊँगा। आप सब भी वहाँ जन्म लें।
देवी राधिका ने जब सुना की भगवान पृथ्वी पर अवतरित होंगे तो वे व्याकुल हो गयीं। भगवान ने उनसे कहा - आप चिन्ता ना करें। मैं आपको भी साथ ही ले चलूँगा। 

श्रीमती राधिकाजी के कहने पर श्रीवृन्दावन, चौरासी कोस वृज, श्रीगोवर्धन, श्रीयमुना को भगवान ने पृथ्वी पर अवतरित होने का आदेश दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें