गुरुवार, 4 जुलाई 2013

एकलव्य

बहुत सारे लोग एकलव्य की गुरु भक्ति को आदर्श मानते हैं । परन्तु इस विषय पर एक अलग दृष्टिकोण या विचार विमर्श की आवश्यकता है।
 
एकलव्य  राजा  हिरण्यधनु का पुत्र था । वह जाति से निषाद (चंडाल ) था । अस्त्र शस्त्र की शिक्षा लेने राजकुमार एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य के पास गया।
 
एकलव्य की   निम्नवर्ग  मानसिकता के कारण गुरु द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य स्वीकारने से स्पष्ट इंकार कर दिया । पर एकलव्य अस्त्र -शस्त्र की शिक्षा लेने के लिए दृढ संकल्प था । वह जंगल की और गया और द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाई और इस मूर्ति के आगे कठोर अभ्यास करके अस्त्र -शस्त्र के शिक्षा मे पारंगत हो गया ।
 
अर्जुन द्रोणाचार्य का प्रिय शिष्य था और उन्होंने अर्जुन  को कहा था कि वह  विश्व सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर  होगा। द्रोणाचार्य कौरवों तथा पांडवों को जंगल मे शिकार करने के लिए भेजते थे । एक दिन जब वे जंगल से जा रहे थे तो वे देखते हैं कि एक कुत्ते का मुख सात तीरों से बंद किया गया है । यह देखकर वे सब आश्चर्यचकित हो जाते हैं और सोचते हैं कि जिसने यह कार्य किया है, निश्चित रूप से वह पाण्डवों से भी श्रेष्ठ धनुर्धर है । उत्सुकता वश उस धनुर्धर की तलाश में वे निकल पड़े । बहुत खोजने पर उन्हें पता चला कि यह धनुर्धर निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य है, जिसने अपनी तीरदांजी कौशल का परीक्षण कुत्ते के मुँह पर किया है।
 
पांडव वापिस अपनी राजधानी में  आ कर द्रोणाचार्य को इस आश्चर्यजनक घटना के बारे में बताते हैं । अर्जुन बड़ी विनम्रता से द्रोणाचार्य को बोलते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि आपका कोई और शिष्य मुझसे भी श्रेष्ठ धनुर्धर है ।
 
द्रोणाचार्य यह सुन आश्चर्यचकित रह जाते हैं । वह अर्जुन के साथ   जंगल मे जाते हैं और वहां जाकर देखते हैं कि एकलव्य बारिश  की  तरह तीर चला रहा है और शस्त्र शिक्षा में पूरी तरह से निपुण है ।
 

द्रोणाचार्य एकलव्य के समीप जाते हैं । एकलव्य उनको प्रणाम करता है तथा अपने आप को उनके शिष्य के रूप में परिचय देता है । द्रोणाचार्य एकलव्य से दक्षिणा के रूप में उसके दायें हाथ का अगूंठा मांगते हैं । बिना विचार किये एकलव्य ने इस आज्ञा का पालन किया ।

            शुरू में एकलव्य के गुरु ने उसे अपना शिष्य बनाने से इनकार कर दिया था क्योंकि वह निम्न जाति का था पर अपने गुरु द्रोणाचार्य के प्रति श्रद्धा के कारण उसने अपने गुरु की मूर्ति बना कर शस्त्र ज्ञान और गुरु भक्ति के आदर्श की स्थापना की ।
              
  अर्जुन ईर्ष्या से भर गया था इसलिए द्रोणाचार्य ने अपने शिष्य अर्जुन के प्रति वात्सल्य के कारण एकलव्य को बर्बाद कर दिया --- यह एक आम धारणा है , परन्तु भक्तों का यह मत नहीं है और न ही यह धारणा सत्य है ।
 
भगवान् के बारे में जो कुछ भी है, वह सब सत्य है । इसी प्रकार हरिभक्ति के सिद्धांतों के बारे मे जो कुछ भी सिद्धान्त हैं वे परम सत्य हैं और भक्तों के जो आदर्श हैं वो भी सत्य हैं । भक्त जो भी करता है उसका उद्देश्य अच्छा होता है, इसलिये वो सत्य है जबकि अभक्त जो भी करता है वह उचित नहीं होता क्योंकि वह भगवान की प्रसन्नता के लिए न करके अपने इन्द्रियतर्पण के लिए कार्य करता है ।
 
जो यह सोचते हैं कि सांसारिक नियम भगवान् से भी बड़े हैं ऐसे व्यक्ति, भगवान् , उनकी भक्ति और उनके भक्तों की विशेषता को नहीं जान पाते और ना ही स्वीकार कर पाते हैं। 
 
एकलव्य की क्या गलती थी इसका विश्लेषण बहुत जरूरी है । उसने गुरु भक्ति का मुखौटा  पहना हुआ था । जब गुरु द्रोणाचार्य ने उसे निम्न जाति की वजह से या उसके संकल्प के परीक्षण करने के लिए , (कारण जो भी हो) उसे मना किया था, उसको चाहिए था वह अपने गुरु की आज्ञा का प्रसन्नता पूर्वक पालन करता । परन्तु एकलव्य ने इसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि उसे महान बनने की आकांक्षा थी , इसी आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने अपने गुरु की आज्ञा पालन न करके उनकी मूर्ति बनाकर शस्त्र शिक्षा ग्रहण करके एक मात्र अपनी इन्द्रिय को संतुष्ट किया । कुछ लोग कह सकते हैं कि उसने फिर भी अपनी गुरु की इतनी कठोर आज्ञा का ख़ुशी ख़ुशी पालन किया । एकलव्य ने अपनी गुरु की आज्ञा का पालन एक मात्र नैतिकता की भावना से किया , उसने यह सहज भक्ति के साथ नहीं किया । भक्ति का अर्थ सहज और सरल है और अगर एकलव्य की हरि ,गुरु , वैष्णव के प्रति भक्ति होती तो  और भगवान् श्री कृष्ण उसके व्यवहार से अप्रसन्न नहीं होते  ।
 

श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें सिखाया है की व्यक्ति के बाहरी कार्यों को देख कर हम उसे भक्त या अभक्त नहीं समझ सकते । उन कार्यों के पीछे उसका क्या उद्देश्य है , वह अधिक महत्वपूर्ण है । असुर कई बार देवताओं से भी अधिक तपस्या करते हैं और अंत में अपनी इन्द्रिय तृप्ति के कारण भगवान श्रीहरि के द्वारा मारे जाते हैं और दूसरी तरफ भक्त श्री कृष्ण के द्वारा रक्षित होते हैं । इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हिरण्यकशिपु और प्रहलाद हैं । इसलिए हमें कभी भी गुरु - वैष्णव से श्रेष्ठ नहीं बनना है , हमें गुरु भक्ति का मुखौटा नहीं पहनना है व हमें निर्विशेषवादी नहीं बनना हैं --- एकलव्य के दृष्टान्त से शुद्ध भक्त हमें यही समझाना चाहते हैं । सांसारिक कार्यों को बहुत दक्षता , कुशलता , निपुणता से करना गुरु भक्ति नहीं है । वैष्णव का आश्रय ग्रहण करके, वैष्णवों के आनुगत्य में भगवान की प्रसन्नता के लिये कार्य दक्षता, कुशलता व निपुणता से करना ही शुद्ध भक्ति है ।

WRITTEN BY SRILA BHAKTISIDDHANTA SARASWATI THAKUR PRABHUPADA   

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