बुधवार, 24 अप्रैल 2013

जीवन में हताशा और भजन

हमें संसार की घटनाओं से हताश होकर अपना भजन नहीं छोड़ना चाहिए। संसार भगवान् श्री कृष्ण की माया शक्ति के कारण उत्पन्न विघ्न-बाधाओं का स्थान है। केवल पूर्ण शरणागत जीव ही माया के चंगुल से छुटकारा प्राप्त कर सकता है तथा जन्म-मृत्यु व त्रितापों के भवसागर को पार कर सकता है। हमें 6 प्रकार की शरणागति का अभ्यास करना चाहिए जो कि भजनमय जीवन का आधार हैं। शरणागति के बिना भक्ति हो ही नहीं सकती।

हमें संसारिक हानि एवं लाभ से परेशान नहीं होना चाहिए। शाश्वत आत्मा के शाश्वत लाभों के प्रति हमें बहुत अधिक सतर्क रहना चाहिए क्योंकि वे ही हमारे साथ जाएँगे।      




मंगलमय भगवान् श्री कृष्ण की इच्छा से जो भी कुछ होता है वह सबके नित्य मंगल के लिए ही होता है। जीव अपने किए हुए कर्मो का ही फल भोगते है। इसके लिए किसी को दोष नहीं देना चाहिए। इस क्षणभंगुर जगत में अपनी अल्प-अवधि के निवास में हमें किसी भी परिस्थिति में घबरा कर भजन नहीं छोड़ना चाहिए। पूर्ण शरणागत जीवात्मा का रक्षण व पोषण भगवान् श्री कृष्ण के द्वारा ही किया जाता है। इसमें चिंता करने की कोई बात नहीं है। शरणागत जीव हर परिस्थिति में शांत रहता है। चूँकि हम सर्वशक्तिमान  व सर्वव्यापक भगवान् श्री हरि के द्वारा ही नियंत्रित्त होते है, इसलिए हम उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकते। हम त्यागी-जीवन बिताएंगे या गृहस्थ-जीवन, यह भी उनकी ही इच्छा पर निर्भर करता है। यदि वह कोई विशेष इच्छा करते हैं तो कोई भी उन्हें रोक नहीं सकता। हम अपनी सामर्थ्य के अनुसार ससांर की हरेक परिस्थतियों से तालमेल बिठाकर समस्याओं का समाधान नहीं निकाल सकते। सभी समस्याओं का समाधान निकालने का एक मात्र उपाय है - भगवान् के चरणों में पूर्ण-शरणागति। भगवान् श्री कृष्ण के नित्यदास होते हुए भी जब जीव श्री कृष्ण के पादपद्मों  में अपराध कर बैठते हैं, तब वे श्री कृष्ण से विमुख हो जाते हैं। जब तक जीव अपने जीवन से इस प्रकार के अपराध को नहीं हटाते तब तक उनकी समस्याओं का व्यवहारिक समाधान नहीं निकलेगा। यह निश्चित है कि भगवान् के विमुख होने पर माया जीव को अपने चंगुल में जकड़ लेगी। माया के चंगुल में फँसने के बाद जीव के अन्दर संसारिक भोगों को भोगने की इच्छा जाग्रत हो जाती है। भोगों की यह इच्छायें जीव को जैसे-तैसे नरक में घसीट कर ले जाएँगी, जो कि कष्टों ही कष्टों से भरा स्थान है।
 
अत: हमें रोग के मूल कारण को उखाड़ फेंकना होगा, अन्यथा अनर्थों की फसल फलती-फूलती रहेगी। 
 
हमें सभी कष्टों के मूल कारण श्रीकृष्ण की विमुखता को हटाना होगा। हम अनंत काल से श्रीकृष्ण से विमुख हुए हैं। इसलिए यह विमुखता अकस्मात् नहीं हटाई जा सकती। इसमें हज़ारों जन्म भी लग सकते है और यह एक जन्म में भी हो सकता है। अम्बरीष महाराज जी जैसे महान भक्त भी सांसारिक इच्छाओं को धीरे धीरे ही जीत पाये थे। वैसे भी साधना में अकस्मात् कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
 
वह परमानंदमय लक्ष्य, बिना साधना के प्राप्त नही किया जा सकता और इस साधना के लिए व साधना में उन्नति प्राप्त करने लिए शुद्ध-भक्तों की संगति अत्यंत आवश्यक है।   
 
- श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज

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