रविवार, 25 अक्तूबर 2020

श्रीमद् भगवद् गीता - 9 / 10 / 11

निरन्तर शुद्ध भक्तों से सत्संग सुनते रहें ताकि आपका भगवान के प्रति विश्वास कम ना हो और आपके जीवन में भगवान का एह्सास कम न हो।  

अर्जुन ने देखा कि कुरुक्षेत्र में लड़ने - मरने के लिए पितामह, गुरु, स्वजन आदि तैयार हो कर आये हैं मरने - मारने के लिए।  यह देखकर उसकी हालत खराब हो गई और उसने युद्ध न करने का विचार बना लिया। उसने श्रीकृष्ण से कहा अपने घर के लोगों को मारना, पाप है, इनको मारकर मैं राज्य का क्या करूँगा। यही नहीं रहेंगे तो धर्म कौन सिखायेगा, बच्चों को शिक्षा कौन देगा, सारा समाज चरित्रहीन हो जाएगा……आदि। हे प्रभु! मेरे विचार में युद्ध से कोई लाभ नहीं है। ये चाहे हमें मार दें किन्तु हमें युद्ध नहीं करना चाहिए। 

अर्जुन शोकग्रस्त हो गया। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? वह रथ में जा बैठा। 

हालांकि बात वो ठीक बोल रहा था किन्तु भगवान ने इसे पसन्द नहीं किया। कई बार ऐसा होता है कि हमें अपनी बात, अपनी सोच अच्छी लगती है किन्तु ऐसी परिस्थिती में गुरुजनों की सलाह, भगवान का आदेश सुनना चाहिए।

हम जब भी अपने दिमाग को बड़ा समझ कर चलते हैं, तभी नुक्सान हो जाता है।

अगर चीन अथवा पाकिस्तान से कोई सैनिक हमारे देश के भीतर आ जाये और सीमा पर खड़ा जवान यह सोचे कि क्या मारना है इसको, इसकी पत्नी विधवा हो जायेगी, इसके बच्चे अनाथ हो जायेंगे, …तो क्या यह सही सोच है? 

अर्जुन जो कह रहा है वो ठीक है, किन्तु एक क्षत्रीय के रूप में जो उसका कर्तव्य है, धर्म संस्थापन के लिए जो उसका कर्तव्य बनता है………उस दृष्टि से उसकी सोच गलत है। 

इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि ये तुम्हारे को क्या हो गया है? ये कैसे विचार आ गये हैं, ये तुम्हारे अनुकूल नहीं है। यह समझ लो, कि तुम बहुत बड़ा काम नहीं कर रहे हो,  ये कीर्तिमय कार्य भी नहीं है, ये धर्म भी नहीं है। इसको छोड़ो,  इसको त्यागो, उठो और युद्ध करो। 

अर्जुन चुप हो गया। उसे लग रहा था कि वो बहुत अच्छी बात बोल रहा था किन्तु श्रीकृष्ण ने इसका अनुमोदन नहीं किया।

अतः अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को दण्वत् प्रणाम किया और कहा कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं अपने पूज्य जनों को कैसे मार दूँ? 

आत्म - तत्व की बात, भगवद् अनुभूति की बात तब तक हमें पता नहीं लग सकती जब तक हमारी भगवान के लिए शरणा गति नहीं होगी।

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