शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

श्रीमद् भगवद् गीता - 8

महाभारत का जब युद्ध शुरु होने से पहले, शंख नाद् हुआ।……सभी ने अपने-अपने शंख बजाये। नगाड़े, बिगुल भी बजे। भगवान श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख बजाया। ऐसे युद्ध के महौल में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि हे प्रभु! मेरे दिल की इच्छा है कि मैं दोनों सेनाओं से योद्धाओं को देखना चाहता हूँ, अतः रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जायें।

भगवान श्रीकृष्ण ने तुरन्त अर्जुन की बात मानते हुए, रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले गये।

भगवान हमारे साथ बिल्कुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा हम भगवान के साथ व्यवहार करते हैं। अगर किसी का भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण है तो भगवान की तरफ से भी उस भक्त के लिए समर्पण देखा जाता है। भक्त जब भगवान की खुशी के लिए अपनी इच्छाओं को छोड़ देता है, भगवान के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है, तो ऐसा देखा जाता है कि भगवान भी अपने भक्त की खुशी के लिए अपने नियमों को ताक पर रख देते हैं। अपने भक्त की खुशी के लिए वो सब कर दिखाते हैं जो साधारण मनुष्य की सोच में भी नहीं होता है।

यहाँ पर अर्जुन का श्रीकृष्ण के लिए सखा भाव है, समर्पण भाव है तो भगवान भी यहाँ पर ये नहीं जता रहे हैं कि मैं तो तमाम कारणों का कारण हूँ, सर्वशक्तिमान हूँ, मुझ से श्रेष्ठ दुनिया में और कोई नहीं है, बल्कि मित्र की तरह व्यवहार कर रहे हैं। मित्र की बात मान रहे हैं और रथ चला रहे हैं। 

सीखने वाली बात यह है कि अगर भगवान की तरफ से कृपा का अनु्भव हमें नहीं हो रहा है, तो भगवान की ओर से कमी नहीं है, हमारी ओर से ही कमी है। जब हमारा विश्वास भगवान के प्रति नहीं होगा तो भक्ति का ऐहसास भी हमें अपने जीवन में नहीं होगा। 

भगवान श्रीकृष्ण जब अर्जुन का रथ चला सकते हैं, भरी सभा में द्रौपदी का लज्जा-निवारण कर सकते हैं, गजेन्द्र को ग्राह से बचा सकते हैं, ध्रुव को बीच जंगल में आशीर्वाद देने जा सकते हैं, इतने सारे प्रभावशाली असुरों के बीच में प्रह्लाद को बचा सकते हैं, तो हम पर कृपा क्यों नहीं करेंगे?

हमें प्रहलाद की तरह निष्ठा, ध्रुव की तरह विश्वास, द्रौपादी की तरह आर्त भाव, गजेन्द्र की तरह दिल से पुकार, अर्जुन की तरह दोस्त वाला भाव हमारा होगा तो भगवान हमारे साथ भी वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसे वे इन भक्तों के साथ करते हैं।

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