सोमवार, 15 जून 2020

तपस्यायों के माध्यम से श्रीकृष्ण - भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती

बात उन दिनों की है, जब श्रीचैतन्य महाप्रभुजी नवद्वीप में केवल भक्तों के साथ ही श्रीहरिनाम संकीर्तन करते थे। उन सबका मुख्य स्थल श्रीवास पंडित जी का घर ही होता था। बाहरी व्यक्तियों को प्रवेश की ईज़ाजत नहीं थी।

एक बार एक सिर्फ दूध पीने वाला दूधाहारी ब्राह्मण ने श्रीवास पंडित से कहा की वह भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के कीर्तन-विलास को देखना चाहता है। श्रीवास पंडित जी उसे ब्रह्मचारी व सात्त्वीक आहारी जानकर अपने घर में ले आये।

श्रीवास ने उसे एकान्त में कहीं पर बिठा दिया, ताकि कोई उसे देख ना पाये। 

अन्तर्यामी श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ब्राह्मण की उपस्थिति को जान गये किन्तु कुछ बोले नहीं।


भक्तों के आजाने पर श्रीहरिनाम संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। अचानक श्रीमहाप्रभुजी बोले - आज कीर्तन में कुछ आनन्द नहीं आ रहा। ऐसा लगता है कि किसी बहिर्मुख व्यक्ति ने घर में प्रवेश किया है।

श्रीमहाप्रभुजी की बात सुनकर, भयभीत भाव से श्रीवास पंडित जी बोले - 
एक दूधाहारी ब्राह्मचारी द्वारा आपके नृत्य-कीर्तन  के दर्शन करने के लिये आग्रह करने पर उसकी तपस्या और आर्ति को देखकर मैंने उसे घर में स्थान दिया है। 

श्रीमहाप्रभु जी ने श्रीवास पंडित जी को समझाते हुये कहा कि श्रीकृष्ण में शरणागति के अतिरिक्त दूध पीने इत्यादि विभिन्न तपस्यायों के माध्यम से श्रीकृष्ण - भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः उसे यहाँ से बाहर कर दो।

 दूधाहारी ब्राह्मण ने भी सुना, और वह श्रीमहाप्रभु जी के शरणागत हो गया। 

श्रीमहाप्रभु, जो स्वयं श्रीकृष्ण हैं, ने उसकी शरणागति के भाव को देखकर उस पर कृपा की और तपस्या, आदि की दाम्भिकता का दिखावा करने के लिये निषेध कर दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें