मंगलवार, 7 अगस्त 2018

श्रीमद् गीता की वास्तविक शिक्षा क्या है, ये हमें कौन समझा सकता है?

श्रीगीता जी के वक्ता हैं -- श्रीकृष्ण।

अतः श्रीकृष्ण के हृदय के अन्दर जो जितना अधिक प्रवेश कर सकेंगे, वह उतना ही अधिक उनकी वाणी का तात्पर्य अनुभव करने में समर्थ हो सकेंगे। वक्ता के हृदय के अन्दर प्रवेश न होने पर श्रोता अपने ही रंग-ढंग में गीता को समझते हैं, अर्थात् अपनी इच्छानुसार, बिना भावना को समझे, तोड़-मरोड़ कर अपनी ही बुद्धि के विचार से मनगढ़त बातें बोलने लगते हैंं। भगवान से प्रेम किये बिना उनके हृदय में प्रवेश सम्भव ही नहीं है। वैसे भगवान से प्रेम करने के पाँच प्रकार हैं -- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और कान्त।

किसी व्यक्ति के बारे में जितना उसका विश्वासपात्र नौकर अथवा सेवक बता सकता है, उतना दूर से देखने वाला नहीं बता सकता। सेवक की अपेक्षा उस व्यक्ति के बारे में उसका अन्तरंग दोस्त उस व्यक्ति के बारे में और भी ज्यादा बता सकता है। मित्र की अपेक्षा में उस व्यक्ति के माता-पिता उसके बारे में ज्यादा जानते होंगे, किन्तु सबसे ज्यादा जानने वाली उसकी पत्नी होगी।
इसलिए श्रीकृष्ण के पाँच प्रकार के मुख्य भक्त ही श्रीकृष्ण की कही हुई वाणी का वास्तविक तात्पर्य समझने में समर्थ हैं। प्रेमिक भक्तगणों में भी मधुर रस की सेविका, गोपियों का स्थान सब से ऊपर है। सभी की अपेक्षा अपने आपको सबसे अधिक श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित किया है गोपियों ने। इसलिये उनकी श्रीकृष्ण-प्राप्ति सर्वाधिक है। वे श्रीकृष्ण के भाव को जहाँ तक वे जानती हैं, वहाँ तक कोई अन्य नहीं जानता। अतः वे अथवा उनके पूर्ण अनुगत जन ही बता सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद् गीता के माध्यम से क्या सन्देश देना चाह रहे हैं।

कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह कह सकता है कि जब वह जगत की सभी बातें जानने में समर्थ हैं तो वे भगवान् को भी जान लेंगे। सच्चाई तो यह है कि मनुष्य की बुद्धि की एक सीमा है। अपनी क्षमता के आगे का वो नहीं जान सकती है। प्रकृति के अतीत तत्व के विषय में बुद्धि का प्रवेश असम्भव है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन,
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणते तनुं स्वाम्॥
(कठोपनिषद 1/2/23)
यय्सदेवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥
(श्वे…उ…6/23)

इन उपनिषदों के अनुसार, सर्वकारणकारण स्वतः सिद्ध भगवान को उनकी कृपा के बिना कोई नहीं जान सकता।

चूंकि भगवान और और भगवान के कहे गये वाक्यों में कोई भेद नहीं होता,
इसलिये भगवान के प्रति अशरणागत व्यक्ति भगवान के उपदेशों का तात्पर्य समझने में असमर्थ रहता है। जो व्यक्ति भगवान को मानता ही नहीं, जानता ही नहीं, वो उनके हृदय तक कैसे पहुँच सकता है। ऐसा अशरणागत व्यक्ति उनकी बातों का सही- सही तात्पर्य भी नहीं जान सकता। अतः ऐसा व्यक्ति जब भगवान की वाणी श्रीगीता की व्याख्या करेगा तो क्या वो उन वाक्यों का सही अर्थ बता पायेगा। 

-- श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज 'विष्णुपाद' जी

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