गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

देहु

देहु वारकरी सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए अत्यन्त पवित्र तीर्थस्थल है। यह एक छोटा सा कस्बा है जो पूना से 40 किलोमीटर उतर में स्थित है। विशेष रूप से यहाँ रुक्मिणी-विट्ठल मन्दिर है, वैकुण्ठ वृक्ष, गाथा मन्दिर और इन्द्रायणी विख्यात है।

इस लेख के लेखक इस्कान के श्रीमाधवेन्द्र पुरी दास जी लिखते हैं --  हालांकि मेरा जन्म महाराष्ट्र में हुआ था,  लेकिन इस्कान में आने के पश्चात् ही मैं श्रीतुकाराम महाराज के विषय में अधिक जान पाया। कुछ ही समय में मैंने अपने हृदय में उनके चरित्र एवं उनके जन्म-स्थान देहु के प्रति एक विशेष आकर्षण का अनुभव किया। इअलिए, कुछ समय पूर्व मैंने अपने मित्र वंशीविहारी दास के साथ देहु जाने का निर्णय लिया।

हम सुबह-सुबह मुम्बई से निकले और एक रेलगाड़ी और बस बदलकर 9 बजे देहु पहुँच गये। ग्रामीण परिवेश प्राकृतिक सुन्दरता से व्याप्त था। मुम्बई की भाग-दौड़ से दूर वहाँ का जीवन गहन शान्ति एवं सरलता से भरा था। सड़कों के किनारे दुकानदार अपनी दुकानें खोलकर सफाई कर रहे थे और स्त्रियाँ घर के बाहर कपड़े अथवा बर्तन धो रही थीं। कुछ वृद्ध खाट पर बैठे सर्दियोंं की धूप सेक रहे थे।
सबसे पहले हम वैकुण्ठ मन्दिर गये, वह स्थान जहाँ तुकाराम महाराज को लेने के लिए वैकुण्ठ से विमान आया था। इतिहास है कि भगवान विट्ठल के महान् भक्त संत तुकाराम ने सशरीर वैकुण्ठ में प्रवेश किया था। हमें बताया गया कि वह पीपल का वृक्ष जिसके नीचे उन्हें लेने के लिए विमान उतरा, आज भी तुकाराम महाराज की तिरोभाव तिथि को उसी सही समय पर स्वतः कम्पायमान होने लगता है।

अनेक तीर्थयात्रियोंं का अनुगमन करते हुए हमने उस प्राचीन पीपल वृक्ष की परिक्रमा की और निकट ही स्थित एक छोटे मंदिर के दर्शन किये। मंदिर में तुकाराम महाराज की पुत्री और उनके एक शिष्य श्रीनिलोबा राय का मंदिर है। तुकाराम महाराज के प्रयाण के पश्चात् इन दोनों ने पुनः उनके दर्शन करने के लिए तपस्या की। और माना जाता है कि एक बार तुकाराम महाराज उनसे मिलने के लिए आये थे।


इतीहास

लगभग 500 वर्ष पुरानी बात है। देहु में विश्वम्भर अपनी पत्नी अमाई के साथ रहते थे। उनके माता-पिता भगवान विट्ठल के भक्त थे और प्रतिवर्ष पंढरपुर जाते और साधुओं की सेवा करते। जब विश्वम्भर बढ़ा हुआ तो उसके माता-पिता ने उससे पंढरपुर जाकर भगवान विट्ठल का आशीर्वाद लेने के लिए कहा। भगवान विट्ठल ने विश्वम्भर को मंत्रमुग्ध कर लिया। वे प्रत्येक एकादशी को पंढरपुर जाने लगे।
एक बार उन्होंने निश्चय किया कि अब वे लौटकर नहीं जायेंगे। तब भगवान ने विश्वम्भर को घर लौटने के लिये कहा और वचन दिया कि वे स्वयं उनके गाँव आयेंगे। कुछ समय पश्चात् भगवान उनके स्वप्न में आये और बताया कि वे एक स्थान पर भूमी में गड़े हुये हैं। विश्वम्भर गाँववासियों के साथ नृत्य-कीर्तन करते हुए उस स्थान पर पहुँचे तो एक आकाशवाणी हुई -- भूमि औज़ारों से नहीं अपने हाथों से खोदो। विश्वम्भर की भक्ति से प्रसन्न होकर यहाँ भगवान प्रकट हो रहे हैं। इनकी भावी पीढ़ियों में एक महान् संत का जन्म होगा जो अपने मधुर कीर्तन से सम्पूर्ण जगत का उद्धार करेगा।

विश्वम्भर ने भगवान के लिए सुन्दर मन्दिर की स्थापना की और भक्ति भाव से उनकी सेवा करने लगे। कुछ समय पश्चात् उनका देहान्त हो गया और उनके दो पुत्रों हरि और मुकुन्द भगवान की सेवा छोड़ कर मुगल राजा की सेना में भर्ती हो गये। विश्वम्भर की विधवा अमाई भी अपने पुत्रों के साथ रहने लगी। एक दिन भगवान अमाई के सपने में आये और कहा-- विश्वम्भर ने मेरी सेवा का वचन दिया था। परन्तु तुम अपने पुत्रों के मोह में मुझे छोड़ आयी हो। देहु लौट आओ, अन्यथा अमंगल होगा।


परन्तु किसी के कानों में जूँ तकं न रेंगी।

एक रात फिर भगवान उसके सपने में आये और चेतावनी दी कि यदि तुरन्त निर्णय नहीं लिया तो दोपहर तक भारी संकट आयेगा। हरि और मुकुन्द अपनी माँं के सपनों का मज़ाक उड़ाने लगे और चुनौती देते हुए कहा -- माँ! तुम हमारे लिए पंच पकवान बनाओ। देखते हैं कि दोपहर तक क्या होगा?

वे दोनों भोजन करने बैठे ही थे कि राजा का बुलावा आ गया। शत्रु ने राज्य पर आक्रमण कर दिया था। दोनों भाई रणभुमि से वापिस नहीं लौटे।

तुकाराम महाराज लिखते हैं -- हम नियंत्रक नहीं है। भोजन का एक निवाला खाने के लिए हम स्वतन्त्र नहीं हैं। मुझे अपने परिवार में इसका अनुभव है।
हरि की विधवा अपने पति के साथ सती हो गई और चूंकि मुकुन्द की फ़ो/ओक गर्भवती थी, वह उपनी सास अमाई के साथ देहु आ गई। उसने विठोबा नामक पुत्र को जन्म दिया और उसकी चौथी पीढ़ी में बोल्होबा  का जन्म हुआ। वे निरन्तर भगवान से प्रार्थना करते कि उनके घर वैष्णव-संतान का जन्म हो। और 1608 ई महान् सन्त वैष्णव तुकाराम महाराज का जन्म हुआ।

तुकाराम महाराज के बड़े भाई शाहजी बचपन से ही वैरागी थे और पिता के देहान्त के पश्चात् घर छोड़कर चले गये। घर की पूरी ज़िम्मेदारी तुकाराम महाराज के ऊपर आ पड़ी। वे अपनी युवावस्था में ही थे और उनका विवाह हो चुका था। उनका व्यवहार बहुत सरल था।
पिता की मृत्यु के पश्चात् पहले के तीन वर्ष बड़े कठिन बीते।  उनकी पहली पत्नी संसार से चली गयीं और दूसरे विवाह से पहली संतान भी चली गयी। किन्तु उनके हृदय में भगवान के प्रति उत्कट आकर्षण जागृत होने लगा। उन्होंने निश्चय किया वे अपना सब कुछ छोड़ कर एक पर्वत की चोटी पर जायेंगे और जब तक भगवान के दर्शन नहीं होंगे, वे  हरिनाम-कीर्तन करते रहेंगे। जंगली पशुओं, साँपों और बिच्छुओं के बीच वे भामनाथ पर्वत पर दृढ़तापूर्वक बैठ गये और पंद्रह दिनों तक अखण्ड हरिनाम कीर्तन किया। 
उनकी तीव्र भक्ति से आकर्षित होकर भगवान् विट्ठल ने उन्हें अपना दिव्य दर्शन एवं ज्ञान दिया। 

तुकाराम जी अब एक महान् संत बन चुके थे।

---- भगवद्दर्शन से……… अप्रैल 2012…………………
लेखक -- श्री माधवेन्द्र पुरी दास।

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