मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

सद्-गुरु को हम बदल नहीं सकते।

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में, श्रीकृष्ण लीला की श्रीमती राधा जी हीं श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी बन कर आयीं।

एक दिन श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभु जी से एक बार फिर से दीक्षा लेने का प्रस्ताव रखा (श्रीगदाधर पण्डित जी उस समय श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि से दीक्षित थे)। उन्होंने श्रीमन्महाप्रभु जी से कहा, 'मैंने अपना इष्ट मन्त्र (गुरु से प्राप्त मन्त्र) किसी को सुना दिया है। उसी कारण से मेरी मन्त्र स्फूर्ती ठीक प्रकार से नहीं हो रही है । इसलिए आप वही मन्त्र मुझे फिर से सुना दीजिए, जिससे मेरा मन प्रसन्न हो जाये।'


श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने उत्तर दिया, 'आपके तो गुरु हैं। कृपया सावधान हो जायें। ऐसा करने से मुझे अपराधी होना पड़ेगा। मन्त्र की क्या बात है, मेरे प्राण भी तुम्हारे हैं, किन्तु गुरु के रहते ऐसा व्यवहार ठीक नहीं।'

श्रीगदाधर --'वे तो इस समय यहाँ पर नहीं हैं। उनके बदले आप ही सारा कार्य करो।'

श्रीमहाप्रभु -- 'तुम्हारे तो गुरु श्रीविद्यानिधि जी हैं, विधि के विधान से जल्दी ही तुम उनसे पुनः मिलोगे।'


श्रीचैतन्य महाप्रभु जी सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं। कुछ ही दिनों बाद श्रीविद्यानिधि जी वहाँ आ गये। 


श्रीगदाधर पण्डित जी ने उनसे पुनः इष्ट मन्त्र श्रवण किया।


परमाराध्य, परमपूज्यपाद जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने इस लीला को समझाते हुए बताया है कि,------

'भोगमयी चिन्ता को छोड़ने के लिये जिस शब्द-ब्रह्म की प्राप्ति होती है, वह ही मन्त्र है। अश्रद्धालु व्यक्ति को ऐसे मन्त्र का उपदेश करने से उपदेशक के हृदय में मलीनता प्रवेश करती है। ऐसे संग के दोष से दिव्य ज्ञान नष्ट हो जाता है। इसलिए उस दिव्य-मन्त्र (ज्ञान) को पुनः लेना आवश्यक हो जाता है। उसी उद्देश्य से श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी जी ने श्रीगौर-सुन्दर जी से पुनः दीक्षा का अनुरोध किया था। किन्तु श्रीमहाप्रभु जी ने उनको पूर्व गुरु (श्रीविद्यानिधि) से ही पुनः मन्त्रोपदेश सुनने को कहा।

यहाँ पर शिक्षणीय विषय यह है कि श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी श्रीमन्महाप्रभु जी के नित्य-सिद्ध पार्षद हैं।  उनमें किसी साधक की तरह अनर्थ उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं हो सकती। उनको केवल निमित्त बनाकर महाप्रभु जी ने शिक्षा दी कि कि अपात्र को मन्त्र का उपदेश करने से मन्त्र की ताकत क्षय होती है और मन्त्र, साधक के हृदय में पहले की तरह आनन्द से साथ स्फुरित नहीं होता। ऐसी अवस्था में दीक्षा गुरु से फिर वही मन्त्र दुबारा सुनने पड़ते हैं, अन्य किसी से श्रवण करने की विधि ठीक नहीं है। 

इसका कारण यह है कि सद्गुरु कभी भी परिवर्तनीय नहीं हैं । 

जहाँ तक बात रही श्री गदाधर जी के यह कहने कि की कि मुझे मन्त्र ठीक से स्फुरित नहीं हो पा रहे हैं - ये दीनता की बात केवल मात्र लोक शिक्षा के लिए है ।'


'श्रीगौर पार्षद एवं गौड़ीय वैष्णव-आचार्यों के जीवन चरित्र' में श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी बताते हैं की पहले जो व्रजमण्डल में श्रीवृषभानु (श्रीमती राधा जी के पिताजी) रूप से विख्यात थे, वही महाशय इस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि के नाम से विख्यात हुये।

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