बुधवार, 14 दिसंबर 2016

समदर्शन और समव्यवहार

कोलकाता शहर में एक अधेड़ उम्र की महिला रहती थी जो कि भगवान की बहुत अच्छी भक्त थी किन्तु उनके पति भगवान को नहीं मानते थे। एक बार माताजी ने मन्दिर के महात्मा से कहा कि वे ठाकुरजी की सेवा के लिये कुछ देना चाहती हैं, अतः किसी को उनके घर भेजें किन्तु ऐसे समय भेजें जब उनके पति घर पर न हों। उन्होंने कहा कि दिन के दस बजे के बाद आने से ठीक होगा।

उक्त समय पर एक बालक भक्त को महात्माजी ने माताजी के घर पर भेजा।

जब उन्होंने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो उन माताजी के पति ने ही दरवाज़ा खोला। किसी कारण से वे आज घर पर ही थे। वह बालक सकपकाया, परन्तु उस घर के मालिक के कहने पर घर के भीतर चला गया। मालिक ने उस भक्त को बिठाया व पास ही में वह भी बैठ गया।

वह खाना खा रहा था। बालक यह देखकर हैरान हो गया कि जिस थाली में वह खाना खा रहा था, उसी थाली में उसका कुत्ता भी खाना खा रहा था। भक्त यह सब देख रहा था। मालिक बोला - भजन करते हो?

भक्त - जी।

मालिक - किन्तु साधना के लिये समदर्शन होना होगा, नहीं तो साधना नहीं होगी। देखो मैं साधना कर रहा हूँ और मेरा समदर्शन भी है। मैं जिस थाली में खा रहा हूँ, मेरा कुत्ता भी उसी थाली में खा रहा है। हम दोनों इकट्ठे भोजन कर रहे हैं। मैं कोई भेद नहीं देखता हूँ। क्या तुम ऐसा कर सकते हो?

भक्त बालक कुछ नहीं बोला।

मालिक - बताओ।

भक्त - नहीं।

मालिक - जब समदर्शन ही नहीं तो भजन कैसे होगा?
भक्त चुपचाप वापिस मठ-मन्दिर चला आया। वापिस आकर उसने सारी बात वहाँ के बड़े महाराज परमपूज्यपाद श्रीभक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराजजी को बताई।

महाराजश्री ने उसकी बात को सुनकर उसे कहा - ये समदर्शन नहीं है क्योंकि वह व्यक्ति सोच रहा है कि मैं एक मनुष्य हूँ व यह एक कुत्ता है। मैं श्रेष्ठ हूँ व यह कुत्ता निकृष्ठ है। तब भी मैं इसे अपने साथ खिला रहा हूँ। यह तो विसम दर्शन है।

समदर्शन का अर्थ होता है, एक जैसा दर्शन। जैसे हम सभी आत्मायें हैं। कुत्ता, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि तो बाहर का चोला है। हम सभी भगवान के नित्य सेवक हैं।

दूसरी बात यह है कि समदर्शन तो सबके साथ हो सकता है, किन्तु सम-
व्यवहार नहीं हो सकता। हम सब के साथ एक सा व्यवहार नहीं कर सकते।

घर में पिता, माता, पत्नी, पति, भाई, बेटा, बेटी, इत्यादि सभी होते हैं, क्या सबसे एक जैसा व्यवहार हो सकता है? दर्शन एक ही है कि हम सब उक्त परिवार के सदस्य हैं, किन्तु व्यवहार एक सा नहीं हो सकता।

अब अपने शरीर की बात लो। हमारे शरीर के सभी अंग हमारे हैं व हमें सभी से बराबर प्रेम है। हम सभी अंगो की बराबर देखभाल भी करते हैं। किन्तु सभी अंगों से एक सा व्यवहार नहीं करते। ऐसे अंग हैं, जिन्हें छू लेने से हमें हाथ धोने पड़ते हैं किन्तु ऐसे अंग भी हैं जिन्हें छू लेने पर हम हाथ नहीं धोते। किसी अंग में दर्द होगा तो उसका इलाज कराते हैं, किन्तु बाकी के अंगों का इलाज नहीं कराते, जहाँ दर्द नहीं है।
इसलिये मनुष्य और कुत्ते में समदर्शन तो हो सकता है, क्योंकि दोनों प्राणी ही भगवान के हैं परन्तु सिद्धान्तिक रूप से व व्यवहारिक रूप से दोनों से सम-व्यवहार सम्भव नहीं है।

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