श्रीध्रुव जी की स्मृति के सरंक्षण के लिये यहाँ पर बरामदे वाले एक मन्दिर
का निर्माण हुआ है। मन्दिर में चतुर्भुज पद्मपलाशलोचन श्रीनारायण, श्रीगोपालदेव तथा श्रीशालीग्राम जी विराजित हैं। मन्दिर के पश्चिम प्रकोष्ठ में नारदजी तथा ध्रुवजी की मूर्ति भी पूजित हो रही है।
महाराज उत्तापाद के ज्येष्ठ पुत्र ध्रुवजी पाँच वर्ष की अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाक्य बाणों से बिँधकर तथा अपनी माता सुनीति देवी से भगवत्-प्राप्ति का उपाय जानकर पिता से भी बड़े राज्य को प्राप्त करने की अभिलाषा से तपस्या करने के लिये महल से निकल पड़े।
'कहाँ पद्मपलाशलोचन हरि' - भगवान् के इस नाम को व्याकुलता से पुकारते-पुकारते ध्रुवजी तन्मय हो गये थे। इधर भगवान श्रीहरि की प्रेरणा
से उनके प्रियजन श्रीनारद गोस्वामी पहले उत्तानपादजी की राजधानी में गये, तत्पश्चात हिंस्र जानवरों से भरे जंगल में जाकर ध्रुवजी को मिले।
ध्रुवजी से मिलकर पहले नारदजी ने कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली परन्तु ध्रुवजी की हरिभजन में निष्ठा से सन्तुष्ट होकर नारदजी ने उन्हें द्वादशाक्षर मन्त्र प्रदान किया।
श्रीनारग गोस्वामीजी ने उपदेशानुसार ध्रुवजी ने मधुवन में तीव्र तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की थी तथा चतुर्भुज नारायण भगवान के दर्शन करके कृत-कृतार्थ हो गये थे। जिससे राज्य की अभिलाषा सम्पूर्ण रूप से उनके हृदय से अन्तर्हित हो गयी।
ध्रुव जी जिस घाट पर स्नान करते थे, वह चौबीस घाटों में से ही एक घाट है, जो कि ध्रुव घाट के नाम से प्रसिद्ध है।
गया में पिण्ड दान करने से लोगों को जो फल मिलता है, ध्रुव तीर्थ में पिण्ड दान करने से उसका सौ गुना ज्यादा फल मिलता है। इस ध्रुवतीर्थ पर जो लोग जप, होम, तपस्या, दान या अर्चन करते हैं, उन्हें अन्यान्य सभी तीर्थों की अपेक्षा सौ गुना अधिक फल मिलता है।
का निर्माण हुआ है। मन्दिर में चतुर्भुज पद्मपलाशलोचन श्रीनारायण, श्रीगोपालदेव तथा श्रीशालीग्राम जी विराजित हैं। मन्दिर के पश्चिम प्रकोष्ठ में नारदजी तथा ध्रुवजी की मूर्ति भी पूजित हो रही है।
महाराज उत्तापाद के ज्येष्ठ पुत्र ध्रुवजी पाँच वर्ष की अवस्था में अपनी सौतेली माता के वाक्य बाणों से बिँधकर तथा अपनी माता सुनीति देवी से भगवत्-प्राप्ति का उपाय जानकर पिता से भी बड़े राज्य को प्राप्त करने की अभिलाषा से तपस्या करने के लिये महल से निकल पड़े।
'कहाँ पद्मपलाशलोचन हरि' - भगवान् के इस नाम को व्याकुलता से पुकारते-पुकारते ध्रुवजी तन्मय हो गये थे। इधर भगवान श्रीहरि की प्रेरणा
से उनके प्रियजन श्रीनारद गोस्वामी पहले उत्तानपादजी की राजधानी में गये, तत्पश्चात हिंस्र जानवरों से भरे जंगल में जाकर ध्रुवजी को मिले।
ध्रुवजी से मिलकर पहले नारदजी ने कई प्रकार से उनकी परीक्षा ली परन्तु ध्रुवजी की हरिभजन में निष्ठा से सन्तुष्ट होकर नारदजी ने उन्हें द्वादशाक्षर मन्त्र प्रदान किया।
श्रीनारग गोस्वामीजी ने उपदेशानुसार ध्रुवजी ने मधुवन में तीव्र तपस्या करके सिद्धि प्राप्त की थी तथा चतुर्भुज नारायण भगवान के दर्शन करके कृत-कृतार्थ हो गये थे। जिससे राज्य की अभिलाषा सम्पूर्ण रूप से उनके हृदय से अन्तर्हित हो गयी।
ध्रुव जी जिस घाट पर स्नान करते थे, वह चौबीस घाटों में से ही एक घाट है, जो कि ध्रुव घाट के नाम से प्रसिद्ध है।
गया में पिण्ड दान करने से लोगों को जो फल मिलता है, ध्रुव तीर्थ में पिण्ड दान करने से उसका सौ गुना ज्यादा फल मिलता है। इस ध्रुवतीर्थ पर जो लोग जप, होम, तपस्या, दान या अर्चन करते हैं, उन्हें अन्यान्य सभी तीर्थों की अपेक्षा सौ गुना अधिक फल मिलता है।
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