सोमवार, 17 अक्टूबर 2016

जब सूर्य देव ने आपके लिये फल भेजे ।

एक बार आप वृन्दावन की ओर यात्रा कर रहे थे। आपका नियम था कि सूर्य के उदित हुये बिना, दर्शन किये बिना, भोजन-प्रसाद नहीं ग्रहण करते थे।  उस दिन घने मेघों ने आकाश को घेर लिया था जिसके कारण ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सूर्य उदित ही नहीं हुआ। आप कुछ असमंजस की स्थिती में हो गये।

ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी। और कोई उपाय न देख, आपने चलती ट्रेन में ही सूर्य देव का स्तव-स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया।
इसके फलस्वरूप, कुछ ही समय बाद आकाश सामन्य हो गया। मेघ तो न जाने कहाँ चले गये? सूर्य उदित हो गये। आप के मन में विचार आने लगे कि सूर्य तो उदित हो गये किन्तु अब चलती ट्रेन में खाना कहाँ से लाया जाये?

इतने में ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। एक वृद्ध व्यक्ति उसमें चढ़ा, वह आपके समीप आया और आपको ताज़े फलों की एक टोकड़ी पकड़ा कर भीड़ में अदृश्य हो गया।
आप विचार करने लगे कि किसने यह फल भेज दिये? किसको पता था कि मैं यात्रा कर रहा हूँ? वो वृद्ध भी न जाने कहाँ चले गये? पैसे लेने भी नहीं आये?

तभी आपके कानों में आवाज़ गूँजी,'आपकी भूख देख कर मैंने ही ये फल आपके लिये भेजे हैं। आप इनको निःसंकोच खायें। मैं सूर्य हूँ।'
सुनने मात्र से ही आपकी आँखों से अश्रु-धारा प्रवाहित होने लगी।  आप सूर्य-देव को पुनः-पुनः प्रणाम व क्षमा-प्रार्थना करने लगे।

आपने विचार किया कि ऐसे बढ़िया फल भगवान को अर्पण करने चाहियें। अतः आप वृन्दावन पहुँचे, व वो फल आपने श्रीगोविन्द देव, श्रीगोपीनाथ जी व श्रीमदनमोहन जी के देवा में अर्पित कर, भगवान का प्रसाद ग्रहण किया।
ऐसे ही एक बार आप राजा व अन्य राज-कर्मचारियों के साथ वन भ्रमण के लिये गये। वन के सौन्दर्य से मोहित हो राजा बहुत दूर निकल गये, और वन के भीतर ही सन्ध्या हो गयी। राजा बहुत थक गये थे तथा भूख-प्यास से बेहाल थे। और न चल पाने के कारण, अत्यधिक थकान के कारण, राज एक वृक्ष के नीचे हताश होकर बैठ गये।

रात्रि होने को थी। राजा की घबराहट देखकर, आपने अपने योग-बल से एक कुटिया व एक शबर (सेवक) को प्रकाशित किया। आपके कहने पर वो सेवक जंगल से बहुत से स्वादिष्ट कन्द-मूल ले आया जिससे राजा व अन्यों की भूख-प्यास जाती रही।
राजा ने रात भर उस कुटिया में विश्राम किया। प्रभात में सब वापिस लौट गये।

राज ने आपसे कहा - कल रात, बीहढ़ वन में बड़े ही मीठे कन्द-मूला खाकर मेरी सारी थकान जाती रही। बड़ी तृप्ति हुई। आप उस वनवासी को बुलाइये, मैं उसे कुछ उपहार देना चाहता हूँ।

तभी राजा ने देखा कि दृश्य बदल गया है। वो वापिस वन में है, वहाँ कुछ भी नहीं है, केवल जंगल ही जंगल है। वो उसी वृक्ष के नीचे बैठा है। राजा हैरान-परेशान सा बोला - यह क्या? यह कैसे हो गया?
राजा के साथ ही राजगुरु थे। राजा की बात सुनकर हँसने लगे। तब राजा की समझ में आया कि यह सब आपके अलौकिक कार्य हैं।

आप और कोई नहीं, जगद्गुरु श्रील भक्ति सिद्धन्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के शिष्य श्रील भक्ति गौरव वैखानस महाराज जी हैं।

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