शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

किसे भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती?

चाक्षुष मन्वन्तर में भगवान श्रीहरि के आदेश एवं शक्तिसंचार से दक्ष-प्रजापति ने पञ्चजन की पुत्री असिक्नी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

उनके यहाँ दस हज़ार पुत्र हुये जिन्हें 'हर्यश्व' के नाम से जाना जाता था। पिता दक्ष ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब वे तपस्या करने के विचार से पश्चिम दिशा की ओर गये। वहाँ सिन्धु नद और समुद्र के संगम पर नारायण-सर नाम के तीर्थ में स्नान किया।
नारायण-सर के पवित्र जल में स्नान करने से उनके अन्तःकरण से दुनियावी भोग, इत्यादि की आसक्ति दूर हो गयी। उनका ध्यान भगवान की ओर, भागवत धर्म की ओर लग गया। किन्तु पिता की आज्ञा से बंधे होने के कारण वे तपस्या ही करते रहे। 

जब देवर्षि नारद जी ने देखा की भागवत धर्म में रुचि होने पर भी ये प्रजावृद्धि के लिये ही तत्पर हैं, तो उन्होंने इन्हें उपदेश प्रदान किये। भगवान के शुद्ध भक्त के संग व उनकी कृपा के कारण हर्यश्वों ने एक मत
से यही निश्चय किया कि हम भगवद् भजन करेंगे।

जब दक्ष प्रजापति ने यह सुना तो उन्हें बहुत शोक हुआ।

सचमुच अच्छी सन्तान का होना भी शोक का कारण है? कितनी अद्भुत बात है? आहा! भगवान विष्णु की माया!

इसके बार दक्ष ने फिर 'शबलाश्व' नामक एक हज़ार पुत्र उत्पन्न किये।


वे भी अपने पिता की आज्ञा पाकर प्रजा-सृष्टि के उद्देश्य से तप करने के लिये उसी नारायण-सर पर गये, जहाँ उनके बड़े भाई गये थे।  स्नान करने के उपरान्त वे तप में रम गये। उन्हें देवर्षि नारद जी के दर्शन हुये।  प्रश्न-उत्तर हुये। साधु संग हुआ, हरिकथा हुई।  उपदेश देकर नारदजी वहाँ से चले गये। उसके बाद दक्ष के वे पुत्र भी अपने भाईयों के मंगलमय मार्ग का अनुगमन करने के लिये चल दिये। भगवान के शुद्ध भक्त (नारद जी) का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। 

उधर दक्ष प्रजापति को जब यह पता चला तो बहुत क्रोधित हुए। 

दैवःवशत उनकी भेंट नारदजी से हो गयी। दक्ष ने क्रोध के आवेश में भरकर श्रीनारद गोस्वामी से कहा --

'हे असाधु! तुमने झूठमूठ में साधुओं जैसा वेश धारण किया हुआ है।  मेरे सीधे साधे बालकों को भिक्षुकों का मार्ग दिखाकर तुमने मेरा बड़ा अहित किया है। तुम अति निर्दयी एवं निर्लज्ज हि। तुमने भगवान् के पार्षदों में रहकर उनकी भी कीर्ति में कलंक लगाया है। मैं जानता हूँ कि भगवान् के पार्षद सदा-सर्वदा दुःखी प्राणियों पर दया करने के लिये आतुर रहते हैं। परन्तु तुम तो प्रेम-भाव का विनाश करते हो। तुम तो हमारी वंश परम्परा का उच्छेद करने पर ही उतारू हो। इसलिए मूढ़! जाओ और लोक-लोकान्तरों में भटकते रहो।
संतशिरोमणि देवर्षि नारद जी ने 'बहुत अच्छा' कहकर उस शाप को स्वीकर कर लिया।

अपने में बदला लेने की शक्ति रहने पर भी दूसरे के किए हुए अपकार को सहन कर लेना ही वास्तविक साधुता है।

वस्तुतः संसार में आसक्त व्यक्तियों के लिये उल्लेखित कर्म-कांडीय दक्ष की नीति अनेक लोगों के द्वारा मानी जाती है, परन्तु देवर्षि नारद जी द्वार दिये गये भगवद् भजन जैसे श्रेष्ठ उपदेश उनकी बुद्धि में नहीं घुसते, इसलिये वे लोग वैष्णव के चरणों में अपराध कर बैठते हैं। 

भगवान के भक्त के प्रति अपराध करके कोटि जन्म के साधन-भजन से भी भगवान की कृपा की प्राप्ति नहीं होती है।

इसलिए वैष्णव अपराध से सबको सावधान रहना चाहिये।

(वैष्णव अपराध नामक ग्रन्थ से) 
श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज 
(संस्थापक - श्रीगोपीनाथ गौड़ीय मठ)

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