सोमवार, 21 दिसंबर 2015

तुम कहाँ चले गये?

यह स्वभाविक ही है कि जब किसी परिवारिक सदस्य की मृत्यु होती है तो परिवार के अन्य सदस्य इस पर दुःखी होते हैं तथा परिवार के उस गन्तुक सदस्य के वियोग को हृदय से लगा लेते हैं।
आसपास या परिवार में कोई मृत्यु हमें सिखाती है कि एक दिन यह शरीर समाप्त हो जाएगा। जिसका कोई उपाय नहीं होता, हमें मज़बूर होकर उसे सहना ही पड़ता है। जन्म लेने वाले की मृत्यु होगी तथा मरने वाला कहीं न
कहीं अवश्य ही जन्म लेगा। भगवान श्रीकृष्ण अवश्यम्भावी के लिए शोक करने को मना करते हैं। वैसे किसी का भी ऐसे संसार छोड़ कर जाना, हमारे लिए जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाने की तैयारी करने तथा श्रीकृष्ण का प्रेम-प्राप्त करने के लिये एक नोटिस है, क्योंकि किसी भी क्षण हम मर सकते हैं तथा ऐसा होने पर अपने इस अमूल्य अवसर को खो सकते हैं।

प्रारब्ध कर्म निर्वाणं न्यापतत् पंचभौतिकम्।
जिन कर्म-फलों का भोग प्रारम्भ हो चुका है, उनके नष्ट होते ही यह शरीर भी नष्ट हो जायेगा। शरीर का अन्त, बिमारी, दुर्घटना आदि किसी भी तरह से हो सकता है, ये सब तो निमित्त हैं। प्राणी, भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से आते हैं और चले जाते हैं, परन्तु अज्ञानवश हम उन्हें अपना समझते हैं और आसक्ति के कारण कष्ट भोगते हैं। 

हमारी इच्छा से न तो कोई आता है और न ही जाता है। हमारा यह सोचना गलत है कि माता-पिता, बच्चे तथा ये रिश्तेदार हमारे हैं क्योंकि इस जगत् में कोई हमारा नहीं है। गलती से यह सोचकर कि हमारे परिवार के सदस्य व रिश्तेदार ही हमारे अपने हैं, हम उनसे ममता कर बैठते हैं तथा कष्ट पाते हैंं।

जब प्राणी भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हो जाते हैं तब माया शक्ति प्राणियों को आच्छादित कर देती है तथा वे जन्म-मृत्यु के समुद्र में व त्रितापों में
डाल दिए जाते हैं। हम गलति से अपने को शरीर समझ बैठते हैं तथा इससे सम्बन्धित अन्य शरीरों को अपना मान बैठते हैं। 

वास्तव में हम श्रीकृष्ण के हैं तथा श्रीकृष्ण हमारे हैं। हमारे वास्तविक जीवन में दुःख का कोई अस्तित्व ही नहीं है। ये सब तो स्वप्न के समान है। 
जब हम श्रीकृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल जाते हैं, तब हम दुःख के शिकार हो जाते हैं। एक प्रबुद्ध आत्मा निरन्तर श्रीकृष्ण की याद में रहता है, इसलिए वह इस प्रकार के स्वप्न से व दुःखों से परे होता है।
सद्-गुरु व परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण शरण ग्रहण करके, हमें सदा श्रीकृष्ण का नाम रटना चाहिए। भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन मन की पीड़ा को हटा देता है तथा शान्ति प्रदान करता है।

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