यह वास्तविकता है कि पिछले जीवन जीवन में हमें अन्य परिवारों, माताओं, पिताओं अथवा देशों में अन्य शरीर मिले थे, किन्तु हमें इसका स्मरण नहीं है।
रात्री में सोते समय हमें यह स्मरण नहीं रहता कि हम अमुक स्त्री के पति तथा अमुक बच्चों के पिता हैं। निद्रा में हम अपने को भी भूल जाते हैं और जब हम जागते हैं तो स्मरण करते हैं - अरे! मैं तो अमुक हूँ और मुझे अमुक-अमुक काम करने हैं।
किसी समय स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपने गुरु के चरणों में अपराध किया तो गुरु ने उसे शूकर बनने का शाप दे दिया।
जब इन्द्र शूकर बनकर पृथ्वी लोक चले आये तो स्वर्ग का सिंहासन खाली हो गया। यह स्थिति देखकर ब्रह्माजी पृथ्वी पर आये और शूकर को सम्बोधित करते हुए कहा - भद्र! तुम पृथ्वी पर शूकर बनकर आये हो। मैं तुम्हारा उद्धार करने आया हूँ। तुम तुरन्त मेरे साथ चलो।
लेकिन शूकर ने जवाब दिया - मैं आपके साथ नहीं जा सकता। मेरे पास अनेक प्रकार की जिम्मेदारियां हैं। मेरे बच्चे हैं, पत्नी हैं और यह सुन्दर
शूकर-समाज है।
हालांकि ब्रह्माजी इन्द्र को स्वर्ग लोक ले जाने की बात कह रहे हैं, किन्तु शूकर-रूप इन्द्र ने मना कर दिया।
यही विस्मृति है।
भगवान श्रीकृष्ण आते हैं और हमसे कहते हैं - तुम इस दुनिया में क्या कर रहे हो? सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। मेरे पास चले आओ, मैं तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करूँगा।'
किन्तु हम कहते हैं - महोदय! हम आप पर विश्वास नहीं करते। मुझे यहाँ आवश्यक कार्य करने हैं।
मनुष्य की यही स्थिति है -- यही विस्मृति है।
ईश्वर नित्य है और हम भी नित्य हैं, किन्तु अन्तर यह है कि हम निरन्तर शरीर बदलते रहते हैं। मृत्यु के होने पर हम अपने जीवनकाल की सारी घटनाएँ भूल जाते हैं।
मृत्यु का अर्थ होता है विस्मृति।
-- राजविद्या नामक ग्रन्थ से,
श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी
(संस्थापक, इस्कान)
रात्री में सोते समय हमें यह स्मरण नहीं रहता कि हम अमुक स्त्री के पति तथा अमुक बच्चों के पिता हैं। निद्रा में हम अपने को भी भूल जाते हैं और जब हम जागते हैं तो स्मरण करते हैं - अरे! मैं तो अमुक हूँ और मुझे अमुक-अमुक काम करने हैं।
किसी समय स्वर्ग के राजा इन्द्र ने अपने गुरु के चरणों में अपराध किया तो गुरु ने उसे शूकर बनने का शाप दे दिया।
जब इन्द्र शूकर बनकर पृथ्वी लोक चले आये तो स्वर्ग का सिंहासन खाली हो गया। यह स्थिति देखकर ब्रह्माजी पृथ्वी पर आये और शूकर को सम्बोधित करते हुए कहा - भद्र! तुम पृथ्वी पर शूकर बनकर आये हो। मैं तुम्हारा उद्धार करने आया हूँ। तुम तुरन्त मेरे साथ चलो।
लेकिन शूकर ने जवाब दिया - मैं आपके साथ नहीं जा सकता। मेरे पास अनेक प्रकार की जिम्मेदारियां हैं। मेरे बच्चे हैं, पत्नी हैं और यह सुन्दर
शूकर-समाज है।
हालांकि ब्रह्माजी इन्द्र को स्वर्ग लोक ले जाने की बात कह रहे हैं, किन्तु शूकर-रूप इन्द्र ने मना कर दिया।
यही विस्मृति है।
भगवान श्रीकृष्ण आते हैं और हमसे कहते हैं - तुम इस दुनिया में क्या कर रहे हो? सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। मेरे पास चले आओ, मैं तुम्हारी हर प्रकार से रक्षा करूँगा।'
किन्तु हम कहते हैं - महोदय! हम आप पर विश्वास नहीं करते। मुझे यहाँ आवश्यक कार्य करने हैं।
मनुष्य की यही स्थिति है -- यही विस्मृति है।
ईश्वर नित्य है और हम भी नित्य हैं, किन्तु अन्तर यह है कि हम निरन्तर शरीर बदलते रहते हैं। मृत्यु के होने पर हम अपने जीवनकाल की सारी घटनाएँ भूल जाते हैं।
मृत्यु का अर्थ होता है विस्मृति।
-- राजविद्या नामक ग्रन्थ से,
श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी
(संस्थापक, इस्कान)
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