सन्तुष्टि का अनुभव होता है, उसका प्रभाव बढ़ता है, उसका सांसारिक मोह खत्म हो जाता है। यही नहीं हरिभजन करने से उसका जीवन प्रसन्नता से भर जाता है, उसे अपने जीवन की हरेक घटना पर भगवान की कृपा का अनुभव होता है।परन्तु हरिभजन सही रूप में, सही दिशा में, सही आनुगत्य में व सही उद्देश्य से होना चाहिये।
अर्थात्
1) उसको संसारिक घमण्ड नहीं होना चाहिये। उसे इस सही भावना में रहना होगा कि वो भगवान श्रीकृष्ण के दासों का दास है।
3) अपने मान-सम्मान के लिये दिल में पागलपन नहीं होना चाहिये। हमारे जीवन में हमसे जो भी अच्छा हो उसका सारा श्रेय तह दिल से गुरुजी, वैष्णव व भगवान को देना चाहिये।
सही आनुगत्य का तात्पर्य है कि हमें एक ऐसे भक्त के दिशा-निर्देशानुसार हरि-भजन करना होगा जिसके बारे में जगद् गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने कहा --
कनक कामिनी, प्रतिष्ठा-बाघिनी,
छाड़ि आछे यारे, सेई तो वैष्णव।
सेई अनासक्त, सेई शुद्ध भक्त,
संसार तथाये, पाये पराभव।
अर्थात् हमेंं ऐसे भक्त का अनुभव करना चाहिये जिसके अन्दर दुनियावी धन-दौलत का कोई लोभ न हो तथा सांसारिक भोगों की वासना व प्रतिष्ठा की इच्छा जिसे दूर-दूर तक भी छूती न हो। साथ ही जिनका हृदय जीवों के प्रति दया-भाव और श्रीकृष्ण-प्रेम से भरा हो।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें