शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

पुण्य पूरे हो जाने पर प्राणी को स्वर्ग छोड़ना ही पड़ता है.

दुर्वासा मुनि के शाप के कारण देवता लोग असुरों से निरन्तर हार रहे थे। उनका राज्य, संसार की व्यवस्था सब कुछ असुरों के हाथों में चली गयी थी। चारों ओर व्यापक अस्थिरता घट रही थी। ऐसे में उन्होंने भगवान श्रीहरि की शरण ली। सर्वशक्तिमान भगवान तो सब कुछ इच्छा करने से ही कर सकते हैं, किन्तु अपने भक्तों को मान लेने का अवसर अवश्य देते हैं।

अतः उन्होंने देवताओं को कहा कि वे असुरों से सन्धि कर लें और दूध के सागर का मन्थन करें। देवताओं ने असुरों से सन्धि कर, इकट्ठे समुद्र मन्थन की योजना बनायी। सब को पता था कि समुद्र मन्थन से अमृत निकलेगा जिसे पीने वाला अमर हो जायेगा।
वासुकी नाग को अमृत देने का वादा देकर उसे मन्थन के लिये रस्सी बनाया, मन्दार पर्वत को मथनी बनाया। लेकिन मन्दार पर्वत को समुद्र तक ले जाने से पहले ही बहुत से देवता - असुर उसके नीचे आकर मर गये। भगवान ने वहाँ आकर सबको जीवित किया और पर्वत को समुद्र के बीचो-बीच पहुँचा दिया।

एक अन्य अवतार श्री अजीत के रूप में देवताओं के साथ खड़े होकर ममुद्र मथने लगे। भगवान अजीत की शक्ति से ही देवता - असुर इतना बड़ा कार्य कर पा रहे थे।
जब पर्वत डूबने लगा तो भगवान ने कच्छप (कूर्म) अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर संभाला। एक अन्य पर्वत रूप से मन्दार के ऊपर स्थिर हुये, ताकी मन्दार पर्वत अपनी जगह से न डोले।

अतः एक ही समय पर भगवान तीन रूपों में वहाँ विराजमान थे।
समुद्र मन्थन से सबसे पहले हलाहल विष निकला जिसे देवताओं की प्रार्थना पर शिवजी ने ग्रहण कर लिया। उस विष को अपने गले में ही रोक लेने के कारण उनका गला नीला हो गया, इसी लिये परम वैष्णव शिवजी - 'नीलकण्ठ' कहलाये।

उस विष की कुछ बूँदें पृथ्वी पर गिरीं जिन्हें कुछ पौधों, सर्प, इत्यादि ने ले लिया।

इसके बाद में सुरभी गाय, उच्छैश्रवा नामक घोड़ा, ऐरावत हाथी (कुल आठ) , मादा हाथी, कौस्तुभ मणि, परिजात पुष्प, अप्सरा, देवी लक्ष्मी, बालचन्द्र, पान्चजन्य शंख, हरिधनु नामक धनुष, वारुणी, श्रीधन्वन्तरी व अमृत, मन्थन करते-करते समुद्र से निकले।
यही भगवान धन्वन्तरी जी जब बहुत समय के बाद दोबारा प्रकट हुये तो उन्होंने मानव जाति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया।

श्रीस्कन्द पुराण के अनुसार जब असुरों ने धन्वन्तरीजी के हाथों में अमृत से भरा बर्तन देखा तो वे उसे लेने लपके। इस पर देवता - असुर झगड़ने लगे। तब इन्द्र-पुत्र जयन्त ने होशियारी से अमृत से भरा कुम्भ उठाया और भागा। सुर्य, चन्द्र, बृहस्पती व शनि ने उसकी सहायता की। असुर उनके पीछे-पीछे लपके। बारह दिन तक यह युद्ध चलता रहा। इन बारह दिनों में जयन्त को चार बार कुम्भ नीचे पृथ्वी पर रखना पड़ा। वे चार स्थान थे नासिक, उज्जैन, हरिद्वार व प्रयाग (अलाहाबाद)। जब जब उसने कुम्भ उठाया उसमें से अमृत की कुछ बूँदे छलक कर इन स्थानों पर गिरींं। यही अमृत ग्रहों कि स्थिति के अनुसार, कुम्भ के समय इन्हीं स्थानों पर प्रकट होता है। उसका फायदा उठाने के लिये ही लोग उस समय नासिक में गोदावरी नदी, उज्जैन में शिप्रा नदी, हरिद्वार में गंगा नदी तथा अलाहाबाद में संगम त्रिवेणी में स्नान व जल पान करते हैं। 
चूंकि यह युद्ध बारह वर्ष (देवताओं के बारह दिन) चला, अतः इन चारों स्थानों पर बारह वर्षों में एक बार कुम्भ मेला होता है। 

बाद में भगवान ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत देवताओं को दे दिया था। असुरों में केवल राहु ही उसको पी पाया था।

वैसे तो भगवान की सृष्टि के सभी प्राणियों की मृत्यु निश्चित है। केवल भगवद्-धाम वासी अमर हैं। इसलिये, अमृत पी लेने पर भी देवता अमर तो नहीं हुये पर अमर जैसे हो गये। उन्हें लम्बा जीवन मिल गया तथा असाधारण बल भी मिला जिससे वे अपना राज्य असुरों से वापिस छीन पाये। अपना समय / पुण्य पूरे हो जाने पर प्राणी को स्वर्ग छोड़ना ही पड़ता है।

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