शनिवार, 18 जुलाई 2015

भगवान जगन्नाथजी के रथ

परंपरा के अनुसार भगवान जगन्नाथ जी की प्रत्येक रथयात्रा के लिये नये रथ बनाये जाते हैं।

सैंकड़ों वर्षों से प्रयोग किये जाने वाले औजारों और स्थानीय मजदूरों की सहायता से रथ-यात्रा से दो मास पूर्व अक्षय तृतीय के दिन यह शुभ कार्य आरम्भ होता है।

प्रत्येक विग्रह के रथ का एक नाम और विशेषता होती है। 
भगवान जगन्नाथ का रथ 45 फुट ऊँचा और वजन में लगभग 65 टन का होता है। उसमें 16 पहिये होते हैं। मकरध्वज नामक इस रथ के ऊपर गरुड़ की मूर्ति होती है और वह चार श्वेत रंग के लकड़ी के घोड़ों द्वारा खींचा जाता है। 

तालबद्ध नामक श्रीबलदेव के रथ के केंद्रीय पहिये होते हैं। उस रथ के ऊपर हनुमान जी की मूर्ति होती है। वह लकड़ी के चार काले घोड़ों द्वारा खींचा जाता है।

पद्मध्वज या दर्पदलन नामक श्रीमती सुभद्रा के रथ के बारह पहिये होते हैं और वह लकड़ी के चार लाल घोड़ों द्वारा खींचा जाता है।

इनके निर्माण के लिये 400 घन मीटर - लगभग 600 वृक्ष - लकड़ी की
आवश्यकता होती है। यह लकड़ी कुछ विशेष वृक्ष जैसे धौर, असन, फसि और सिमिली से ही ली जाती है और ये वृक्ष महानदी नामक नदी के तट पर ही पाये जाते हैं। 

पारंपारिक रूप से पुरी के राजा लकड़ी उपलब्ध कराते थे। मध्य उड़ीसा में महानदी नदी के तट पर विशाल वन भगवान जगन्नाथजी की सेवा में समर्पित थे और पुरी के राजा और अन्य जागीरदार उसके रक्षक थे। प्रतिवर्ष गजपति महाराज अपने लोगों को आवश्यक मात्रा में लकड़ी के लट्ठे लाने भेजते थे। और क्योंकि उस समय सड़के इतनी विकसित नहीं थीं, पुरी तक उन्हें लाने का एकमात्र मार्ग महानदी थी। 
रथयात्रा के एक वर्ष पूर्व, वर्षा के दिनों में जब नदी पानी से भरी होती, तो भारी-भरकम लट्ठों को उसमें तैराकर लाया जाता और वर्षों के पश्चात् कड़क धूप में उन्हें सुखाया जाता। इस प्रकार अगले वर्ष अप्रैल महीने तक वे रथ बनाने के लिये उपयुक्त हो जाते।

यहाँ तक कि 79वीं सदी के आरम्भ में जब अंग्रेज़ी शासकों ने पुरी के महाराज से सभी अधिकार छीन लिए, तो भी भगवान जगन्नाथ के वनों पर उनका अधिकार बना रहा और पूर्व के ही समान वे प्रतिवर्ष लकड़ी की
पूर्ति करते रहे। 1947 में स्वतन्त्रता के उपरान्त भारत सरकार ने इस उत्तरदायित्व को अपने ऊपर ले लिया।

रथ यात्रा के पश्चात् रथों को खोल दिया जाता है और यह लकड़ी भगवान जगन्नाथ जी की विशाल रसोई में भोग बनाने हेतु उपयोग की जाती है।
और लगभग नौ महीनों तक वह रसोई की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त रहती है।

(हिन्दी पत्रिका 'भगवद्दर्शन, जून 2003 से संग्रहित)

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