भगवान श्रीकृष्ण जिनके बिना हमारा जीवन लगभग नीरस सा, 84 लाख योनियों में भटकता हुआ व दुःखों से भरपूर है । इसका दूसरा पक्ष यह है कि श्रीकृष्ण हमारे सेव्य हैं व पूज्य हैंं, यहाँ तक की हमारे जीवन का चरम उद्देश्य उनकी नित्य सेवा प्राप्त करना है।
चूंकि वे हमारे लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं इसलिये उन्हें अपनी क्रियायों के द्वारा हर समय प्रसन्न करना ही हमारा स्वार्थ है व परमार्थ है।
ऐसे में हम अपने प्रिय भगवान को स्मरण करेंगे, मन ही मन उनका नाम अथवा हरे कृष्ण महामन्त्र बोलेंगे तथा इस बात का ध्यान रखेंगे कि जो मैं खा रहा हूँ इसको खाना भगवान को पसन्द है कि नहींं अर्थात् हम भगवान को भोग लगाकर या बिना भोग लगाये माँस, मदिरा, प्याज़, लहुसन, इत्यादि नहीं खायेंगे। क्योंकि यह हमारे प्रियतम, हमारे सर्वस्व जो भगवान श्रीकृष्ण हैं, उन्हें पसन्द नहीं।
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भगवान को भोग लगाना, भगवान की भक्ति का अंग तो है ही, साथ ही वह अपने प्रिय को प्रसन्न करने की व अपने प्रिय को सम्मान देने की चेष्टा भी है। ठीक उसी प्रकार जैसे हम घर में कोई भी नया कार्य करने से पहले या भोजन करने से पहले अपने घर आये मेहमान को अथवा परिवार के पूज्य पिता-माता व दादा-दादी आदि को भोजन के लिये पूछते हैं।
श्रीकृष्ण कर्णामृत ग्रन्थ के अनुसार भगवान व भगवान का नाम अभिन्न होता है। यदि हम ऐसी परिस्थिति में हैं जहाँ हम भगवान को भोग नहीं लगा सकते हैं ---- शादी मे, ऑफिस मे, स्कूल मे, बर्थडे पार्टी मे -- कोई ऑफिस मे अचानक मुझे कुछ मिठाई खाने के लिए देता है ---
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कहने का मतलब जो फल, मिठाई व भोजन इत्यादि जो भगवान को भोग लग सकता है, उन वस्तुओं को हम भगवान का स्मरण करते हुये खा सकते हैंं।
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