रविवार, 16 नवंबर 2014

अब मैं परम सुखी हो गया हूँ ……

दिल्ली में एक दिन पंजाब के किसी भक्त ने श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी से कहा -- महाराज जी! अभी तो मठ-मन्दिरों में कलि घुस गया है। नये - नये बच्चे आ गये हैं वहाँ, उन्हें बात करने की भी तमीज़ नहीं है। अभी हम बूढ़े हो गये हैं। ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। इसलिए वे ज़रा सा भी सम्मान नहीं देते हमें। इन्हें मालूम भी नहीं है कि हमने मठ के लिए क्या - क्या किया अपने टाइम में। कई बार तो मठ-मन्दिरों में घुसने का भी मन नहीं करता।
बड़े ध्यान से श्रील महाराज जी ने उनकी बात सुनी और कहा -- हाँ, भगवान में आत्मनिवेदन, भगवान में शरणागति नहीं होने से ऐसा ही दर्शन होता है।

हमारे पूर्वाचार्य श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा है --

........'आत्म-निवेदन तुया पदे करि, 
हइनु परम सुखी, दुःख दूरे गेल, 

चिन्ता ना रहिल,
चौदिके आनन्द देखि'.........

इस गीति में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि हे कृष्ण! मैंने आपके चरणों में सब कुछ समर्पित कर दिया है, मैं आत्म-निवेदित हो चुका हूँ आपके चरणों में। आत्म-निवेदन होने के बाद मैं परम सुखी हो
गया हूँ। मेरे सारे दुःख चले गये हैं, अब मुझे कोई चिन्ता नहीं। मैं तो चारों ओर आनन्द ही आनन्द देखता हूँं।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने उन्हें कहा कि भगवान के चरणों में शरणागत होने से, उनके चरणों में अपने-आप को आत्म-निवेदन करने से चारों ओर आनन्द ही आनन्द दिखाई देता है परन्तु जब हम अपने-आप को भगवान के चरणों में समर्पित नहीं करते हैं तो 'चौदिके झमेले देखि' -- ये शब्द श्रीलमहाराज जी ने अपनी ओर से जोड़ा कि जो मनुष्य अपने आप को भगवान के चरणों में आत्म-निवेदन नहीं करता उसे चारों ओर, घर में या बाहर में व मठ-मन्दिर में झमेले ही झमेले दिखाई देते हैं।

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