गुरुवार, 14 अगस्त 2014

श्रीकृष्ण ने दिखाया कि कैसे वे अपनी सेवा का मौका देते हैं?

जगत में हम अपने माता-पिता की जितनी भी सेवा करें उतना अच्छा, क्योंकि वे हमें आशीष ही देंगे। हमारे भले की जितनी चिन्ता हमारे माता-पिता को होती है, अन्य किसी को नहीं होती। जब दुनियावी माता-पिता के वात्सल्य की कोई सीमा नहीं तो उन परमेश्वर जिनमें कोटी माताओं का वात्सल्य भरा है, करोड़ों पिताओं का स्नेह भरा है, उन्हें हमारे भले की कितनी चिन्ता होगी, ये विचारने की बात है।
चूंकि हम लोगों की इन्द्रियों की क्षमता की एक सीमा है, इसी कारण से हम भगवान श्रीकृष्ण के पूर्ण वात्सल्य को नहीं समझ पाते, अतः भगवान की कही बातों, शास्त्रों के कथन पर विश्वास कम ही कर पाते हैं। भगवान हमारी इस कमी को भी जानते हैं। अतः वे अपने भक्तों के साथ ऐसी लीलायें रचते हैं जिनसे हमें विश्वास हो जाये कि भगवान की सेवा करने से, उनके भक्तों की सेवा करने से कल्याण ही होता है, कुछ भी बुरा नहीं होता।

जब भगवान श्रीकृष्ण द्वापरान्त में इस धरती पर अवतरित हुये तो उन्होंने
गोचारण लीला की। ऐसे ही एक दिन प्रातः उन्होंने अपने मित्रों से कहा कि आज हम शीघ्र ही घर लौट आयेंगे, अतः भोजन संग ले जाने की आवश्यकता नहीं है। उनके मित्रों को पूर्ण विश्वास था अपने मित्र कृष्ण पर, अतः सबने तुरन्त हामी भर दी। फिर क्या था, बिना कुछ बांधे, सब चल दिये वन की ओर, गायों को लेकर।

लीलामय भगवान श्रीकृष्ण कब क्या करें, कौन जाने?

आज वे गायों को स्वयं हांकते हुये आगे चल रहे हैं। आगे-आगे कृष्ण बांसुरी बजाते, ग्वाल-बाल पीछे उछलते-कूदते, साथ में दाऊ गंभीर मुद्रा में चल रहे हैं। सब के पीछे-पीछे गायें-बछड़े । अन्त में एक-दो मित्र। कृष्ण उन्हें वन के भीतर ले गये। जब काफी आगे निकल गये तो गायों को छोड़ दिया चरने हेतु। सभी मित्र खेलने-कूदने लगे।

दोपहर कब हुई पता ही नहीं चला। दोपहर हुई तो भूख सताने लगी। सभी मित्रों को विश्वास की कन्हैया को बोलने से हो जायेगा। अतः सब ने कहा - 'कन्हैया ! भूख लगी है।' 

श्रीकृष्ण ने कहा- 'देखो, समीप ही एक विशाल यज्ञ चल रहा है। वहाँ जाओ और कहना की समीप ही वन में कृष्ण-बलराम आये हैं। उन्हें भूख लगी है, कृपया खाना दे दो।'

कन्हैया की बात सुनकर मित्र चल दिये। जाकर देखा तो वास्तव में विशाल यज्ञशाला सजी है। बड़े-बड़े मटके, आम्र फल, आम्र वृक्ष, केले के वृक्ष सजे हैं। रंगोली रची गयी है। बहुत से ब्राह्मण उस वक्त यज्ञ में आहुती दे रहे हैं। पहले तो ग्वाल-बालकों की हिम्मत ही नहीं हुई कुछ बोलने की किन्तु जब बालकों ने ब्राह्मणों के मुख से कृष्ण-बलराम का नाम सुना तो उन्होंने हिम्मन जुटाई व ज़ोर से भगवान की कही बात दोहरा दी। ब्राह्मणों से देखा की मलीन से बच्चे कुछ कह रहे हैं, पर उन्होंने सुना-अनसुना कर दिया।

बच्चे मुँह लटकाये लौट आये। कन्हैया को सब सुना दिया। भगवान कृष्ण ने कहा - 'यज्ञशाला के पीछे कुटियायें हैं। वहाँ ब्राह्मणों की स्त्रियाँ रहती हैं। वहाँ जाकर यह कहो। '


बालक फिर गये। कुटियायों के समीपा जाकर ज़ोर से बात दोहराई। स्त्रियों ने सुना व बाहर आ गईं ।पूछा - 'कहाँ पर' व साथ-साथ यह सोच रही हैं कि भोजन तो अभी पूर्ण रूप से पका भी नहीं है, कहीं अवसर न छूट जाये। अतः जो बन पड़ा, उठाया व चल दीं। उधर सामने से ब्राह्मण आ गये। उन्होंने पूछा - 'कहाँ जा रही हो, भोजन का समय है? '

स्त्रियों ने सारी बात सुना दी। फिर विनती करने लगीं कि हमें जाने दो। ब्राह्मणों ने मना कर दिया व कहा कि अगर गयीं तो भूल से भी इधर का रास्ता न करना। स्त्रियाँ फिर भी चली गयीं।  वहाँ जाकर भगवान को भोजन निवेदन किया। भगवान ने, मित्रों के साथ तसल्ली से भोजन किया
व आराम करने लगे। कुछ समय उपरान्त जब सब गायों को इकट्ठा कर चलने लगे तो ब्राह्मण स्त्रियाँ भी संग चल दीं।

भगवान ने कहा - 'आप अब वापिस जायें। '

वे बोलीं -'हम तो सब छोड़ आईं आपके लिये। पतियों ने भी घर से बाहर कर दिया। आपके बिना हम कहाँ जायें?'

भगवान ने कहा - 'निश्चिन्त होकर आप वापिस जायें। विरह से प्रेम बढ़ेगा, तभी आपका कल्याण होगा ।'
वे लौट गयीं। डरतीं-डरतीं वापिस गयीं। ब्राह्मणों ने देखते ही उनके चरण पकड़ लिये व कहने लगे - 'हम दुर्भागे जिनके नाम की आहुति दे रहे थे, उनके बुलावे पर ही हमने ध्यान नहीं दिया। तुम लोग कितनी सौभाग्यशालिनी हो।'

उन्होंने हर्ष के साथ अपनी स्त्रियों को कुटियायों के भीतर बुला लिया। 

हालांकि उन स्त्रियों ने श्रीकृष्ण को पहले कभी भी देखा नहीं था, पर उन्होंने भगवान की लीलायें सुनीं थीं ब्रजवासियों के मुख से जो समीप के उपवन में फूल चयन करने आते थे। 

सत्संग हुआ तो भगवान के दर्शन की आकांक्षा जागी, उत्कुण्ठा हुई। जबकि दूसरी ओर ब्राह्मणों ने कई तीर्थ यात्रायें की, व यज्ञ किये परन्तु भक्तों से हरि-कथा नहीं सुनी । अतः भगवान ने दिखा दिया कि जो व्यक्ति मेरे भक्तों से मेरी कथा सुनता है, मैं उसे सिर्फ दर्शन ही नहीं देता अपितु उसे अपनी व अपने भक्तों की अनमोल सेवा का अवसर भी देता हूँ ।

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