बुधवार, 13 अगस्त 2014

ऐसा करना, एक से अनेक होना केवल ईश्वर के लिए ही सम्भव है।

कुछ लोग सनातन धर्म को बहुत से ईश्वरवादि कहकर गलत बताते हैं। उनका विचार है कि वे स्वयं एक ईश्वर को मानते हैं, किन्तु सनातन धर्मी बहुत से ईश्वरों की आराधना करते हैं। 

वास्तविकता तो यह है कि सनातन धर्म के विचारों के गम्भीर तात्पर्य को जान न सकने के कारण ही वे इस प्रकार की बात कहते हैं। 
परमेश्वर बहुत से हैं, ऐसी बात सनातनियों ने कहीं भी नहीं कही। परमेश्वर असीम हैं, व पूर्ण हैं। वे कभी भी दो, तीन, चार या हजार नहीं होते। असीम के बाहर कुछ भी कल्पना करने से असीम के असीमत्त्व की, पूर्ण के पूर्णत्त्व की हानि होती है । इसलिये पूर्ण - असीम शक्तिमान भगवान एक ही है।

परमेश्वर का, सर्वशक्तिमान का अनन्त ऐश्वर्य है। परमेश्वर के अधीन छोटे-
छोटे बहुत से ईश्वर हो सकते हैं, किन्तु परमेश्वर कभी भी बहुत नहीं हैं। वे एक ही हैं। बुद्धिमान व्यक्ति थोड़े धीर भाव से चिन्ता करके देखे कि परमेश्वर का परम ऐश्वर्य, उनके चिद् वैभव, तटस्थ वैभव, अचिद् वैभव को जो देख सके हैं - उनका ज्ञान अधिक है य जो नहीं देख पाते हैं - उनका ज्ञान अधिक है? 

सारी पृथ्वी में मिट्टी है - यह एक प्रकार का ज्ञान है । किन्तु पृथ्वी की मिट्टी के विचित्र वैभव व वैशिष्ट्य को जो देख पाते हैं, उनको विज्ञानी कहते हैं।
चिद् वैज्ञानिक भगवान के अनन्त ऐश्वर्य को देख सकते हैं - यही ज्ञान उच्च स्तर का ज्ञान है। इसे इस प्रकार नहीं समझना होगा कि वे बहु-ईश्वरवादी हैं या वे बहुत से परमेश्वर की बात कहते हैं। परमेश्वर एक होने से भी वे अनन्त रूपों से लीलायें कर सकते हैं।
यदि कोई कहे कि वे नहीं कर सकते तब उन्हें सर्वशक्तिमान बोलना निरर्थक होगा। 

परमेश्वर को विष्णु कहा जाता है - 'य इदं विश्व व्यापनोति इति विष्णु',  विष्णु पूर्ण हैं। 

देवी-देवता उनकी शक्ति के प्रकाश हैं, वे विष्णु के अधीन तत्त्व हैं।  वे विष्णु नहीं हैं। 

राजा दरबार में एवं राज-महल में - यहाँ पर दो राजा नहीं हैं। उसका दो स्थानों में दो प्रकार का प्रकाश है। उसका दरबार में तो ऐश्वर्य भाव है और महल में माधुर्य भाव । इसी प्रकार भगवान भी अनन्त रूपों से अनन्त लीलायें कर रहे हैं। वे ऐश्वर्य रुप से नारायण हैं । मर्यादा रूप से श्रीरामचन्द्र। बीभत्स रस का प्राक्टय मतस्य भगवान हैं। भयानक और वात्सल्य रस का प्राक्टय नृसिंह भगवान हैं । 

इस प्रकार मत्स्यादि अवतारों में लीलागत पार्थक्य विद्यमान है। बारह के बारह रसों का (पाँच मुख्य, सात गौण रसों का) परिपूर्णतम् रूप से प्राक्टय एकमात्र श्रीनन्दनन्दन श्रीकृष्ण में है। इसलिये भगवत तत्त्वों के एक होने पर भी स्वयं रूप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में रसोत्कर्षता सर्वाधिक है।

श्रीनारायण और श्रीकृष्ण के स्वरूप में सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं है। तब भी श्रृंगार रस के विचार से श्रीकृष्ण स्वरूप ने रसों के द्वारा उत्कर्षता प्राप्त की है। पहले जिन जिन अवतारों की बात बताई गई है वह कोई तो परमेश्वर के अंश हैं व कोई कला - अंश हैं । दैत्य-निपीड़ित जगत् को सुखी करने के लिये ही भगवान युग - युग में अवतीर्ण होते हैं। किन्तु भगवान के सब अवतार कृष्ण के बराबर नहीं क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं। नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में समस्त रसों का प्राक्टय है। इसलिये वे स्वयं भगवान, अवतारी व अंशी हैं। 

एक बार ब्रज में अघासुर के वध के बाद श्रीकृष्ण जब सरोवर के तट पर
गोपाल बालकों के साथ पुलिन भोजन कर रहे थे तो उसी समय ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण की परीक्षा करने के लिये उनके बछड़ों और गोप - बालकों को हरण करके सुमेरू पहाड़ की गुफा में रख दिया। श्रीकृष्ण तत्काल गोवत्स और गोप बालकों का रूप धारण करके घर वापिस आ गये। उनके इस प्रकार आने से गोप-गोपियाँ एवं गाएँ कोई नहीं समझ सका कि उनकी संतानें अपहृत हुई हैं।
परन्तु गोप-गोपियों द्वारा अपनी सन्तानों को स्पर्श करने से उन्हें अद्भुत प्रेम-विकार हुए। गाएँ अपने बछड़ों को स्पर्श करते ही प्रेम के अश्रु बहाने लगीं। यद्यपि इसका कारण ब्रजवासी नहीं समझ पाये, परन्तु श्रीबलराम समझ गये कि कृष्ण के गोप बालक व गोवत्स रूप से आने के कारण ही ब्रजवासियों का इस प्रकार से प्रेम विकार हुआ है।



ऐसा करना, एक से अनेक होना केवल ईश्वर के लिए ही सम्भव है।

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