आजकल समाचार-पत्र inflation, मंहगाई इत्यादि के समाचार से भरे रहते हैं। इधर हम सभी लोग कई प्रकार की युक्तियों से अपनी कमाई, खर्चा व savings का तालमेल बिठाने की चेष्टा भी करते रहते हैं । साथ ही साथ ऐसे रोजगार भी तलाशते हैं जिनमें investment तो कम हो परन्तु आमदनी अधिक हो। व्यापार में फायदा-घाटा तो चलता ही रहता है, किन्तु ऐसा व्यापार सुनने में नहीं आता जिसमें पैसा तो बहुत कम लगाना पड़े, सदा फायदा ही हो, नुक्सान न हो। भौतिक राज्य में ऐसा होने की सम्भावना कम ही दीखती है, किन्तु हमारे
आध्यात्मिक राज्य में यह नियम पूर्ण रूप से लागू होता है। इस जगत में तो अगर किसी को ॠण दिया जाये तो वह ॠण चुकाने में नहीं आता और आध्यात्मिक राज्य में भगवान ॠण को उतारने में कोई कमी नहीं छोड़ते।
भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा विप्र के तन्दुल (चावल) खाये। चावल बासमती नहीं थे, बल्कि भिक्षा में माँगे हुये थे। खाने के बाद भगवान ने उसका सम्मान किया, सबसे परिचय भी करवाया। कुछ दिन खूब आव-भगत की व फिर बैरंग ही लौटा दिया।
मार्ग में सुदामा सोचने लगे - 'मेरी पत्नी ने इतने आग्रह से मुझे भेजा था, की जाओ तुम्हारा मित्र धनी है, वे तुम्हारी कुछ सहायता अवश्य करेंगे। पर यहाँ तो कुछ बात ही नहीं हुई । हाँ ! मैंने भी बात नहीं की। '
फिर सोचने लगे -'मैं चावल लाया हूँ, यह मैंने उसे बताया नहीं था, वह स्वयं जान गया। तब तो दिल की बात भी जान ही गया होगा। '
फिर सोचने लगे - 'हो न हो, मैं ऐसे ही रहूँ, इसी मेरा मंगल है। '
भगवान के भक्त, भगवान के हर कार्य में अपना मंगल ही देखते हैं।
उधर भगवान सोच रहे हैं - 'सुदामा के चावल खाने से मैं ॠणी हो गया। अब मैं कैसे ॠण उतारूँ। मैंने तो वचन दिया है गीता में कि मेरे साथ जो जैसा व्यवहार करता है, मैं भी उसके साथ वैसा ही करता हूँ। सुदामा ने जो मुझे दिया, वो अपनी क्षमता से अधिक दिया। मेरी क्षमता तो असीम है, मैं उसे कैसे दे सकता हूँ।'
भगवान यही सोच-सोच कर शर्मिन्दगी सी अनुभव कर रहे थे।
यह अलग बात है कि जब सुदामा अपने गाँव पहुँचे तो वहाँ का रंग - रूप ही बदला हुआ था। किन्तु यहाँ पर विचारने की बात यह है कि एक मुट्ठी भर चावल कितने महत्वपूर्ण रहे भगवान को। यह कर्म की नहीं, या देने की नहीं अपितु भावना की बात है।
देखो न, द्रौपदी का जन्मोत्सव चल रहा था। ऐसे में भगवान की ऊंगली कट गयी। सुभद्रा ने पूछा - 'भैया ! क्या हुआ?'
भगवान ने कहा - 'कुछ विशेष नहीं, ऊंगली कुछ कट गयी है।'
सुनते ही सुभद्रा, महिषीयाँ सभी वस्त्र ढूंढने दौड़ीं। द्रौपदी नवीन वस्त्रों से
सुसज्जित वहीं पर थी। उसने तुरन्त अपनी साड़ी का किनारा फाड़ा व भगवान की ऊँगली पर बाँध दिया।
यह घटना या यह कृत्य कुछ विशेष नहीं परन्तु भगवान, द्रौपदी के इस ॠण को भूले नहीं। जब ॠण उतारने का समय आया तो इतनी साड़ीयाँ दीं कि सहस्र हाथियों के बराबर बल रखने वाला दुःशासन साड़ी खींचता-खींचता थक गया परन्तु साड़ीयाँ खत्म नहीं हुईं। भगवान के लिये कोई थोड़ा सा भी करे तो भी भगवान उसे बहुत ज्यादा समझते हैं।
यह कोई कहानी या कल्पना नहीं हैं। यह हमारे इतिहास की सच्ची घटनायें हैं। मर्त्य जगत के व्यापार, लेने-देन अस्थायी तो हैं ही, दुःखदायी भी हैं। अगर लेन-देन-व्यापार करना ही है तो भगवान के साथ करो, भगवान के लिये करो क्योंकि उसी में आनन्द है।
लक्ष्मीपति की सेवा करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न नहीं होंगी क्या?
और लक्ष्मीजी जिस पर प्रसन्न हों तो क्या वह निर्धन रहेगा?
फिर भगवान तो सच्चिदानन्द हैं, सच्चिदानन्द अर्थात् आनन्द की घनीभूत मूर्ति। जब आपके साथ व्यापार करने वाला आनन्द का स्रोत है तो उसका धन अर्थात् आनन्द आपको भी तो आयेगा।
.jpg)
अब आप ही सोचिये जगत में ऐसा कौन सा व्यापार है जिसमें आनन्द भी है और बेतहाशा दौलत भी। फिर ये आनन्द कभी भी खत्म होने वाला नहीं , ये आनन्द नित्य है व अनन्त है।
आध्यात्मिक राज्य में यह नियम पूर्ण रूप से लागू होता है। इस जगत में तो अगर किसी को ॠण दिया जाये तो वह ॠण चुकाने में नहीं आता और आध्यात्मिक राज्य में भगवान ॠण को उतारने में कोई कमी नहीं छोड़ते।
भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा विप्र के तन्दुल (चावल) खाये। चावल बासमती नहीं थे, बल्कि भिक्षा में माँगे हुये थे। खाने के बाद भगवान ने उसका सम्मान किया, सबसे परिचय भी करवाया। कुछ दिन खूब आव-भगत की व फिर बैरंग ही लौटा दिया।
मार्ग में सुदामा सोचने लगे - 'मेरी पत्नी ने इतने आग्रह से मुझे भेजा था, की जाओ तुम्हारा मित्र धनी है, वे तुम्हारी कुछ सहायता अवश्य करेंगे। पर यहाँ तो कुछ बात ही नहीं हुई । हाँ ! मैंने भी बात नहीं की। '
फिर सोचने लगे -'मैं चावल लाया हूँ, यह मैंने उसे बताया नहीं था, वह स्वयं जान गया। तब तो दिल की बात भी जान ही गया होगा। '
फिर सोचने लगे - 'हो न हो, मैं ऐसे ही रहूँ, इसी मेरा मंगल है। '
भगवान के भक्त, भगवान के हर कार्य में अपना मंगल ही देखते हैं। उधर भगवान सोच रहे हैं - 'सुदामा के चावल खाने से मैं ॠणी हो गया। अब मैं कैसे ॠण उतारूँ। मैंने तो वचन दिया है गीता में कि मेरे साथ जो जैसा व्यवहार करता है, मैं भी उसके साथ वैसा ही करता हूँ। सुदामा ने जो मुझे दिया, वो अपनी क्षमता से अधिक दिया। मेरी क्षमता तो असीम है, मैं उसे कैसे दे सकता हूँ।'
भगवान यही सोच-सोच कर शर्मिन्दगी सी अनुभव कर रहे थे।
यह अलग बात है कि जब सुदामा अपने गाँव पहुँचे तो वहाँ का रंग - रूप ही बदला हुआ था। किन्तु यहाँ पर विचारने की बात यह है कि एक मुट्ठी भर चावल कितने महत्वपूर्ण रहे भगवान को। यह कर्म की नहीं, या देने की नहीं अपितु भावना की बात है।
देखो न, द्रौपदी का जन्मोत्सव चल रहा था। ऐसे में भगवान की ऊंगली कट गयी। सुभद्रा ने पूछा - 'भैया ! क्या हुआ?'
भगवान ने कहा - 'कुछ विशेष नहीं, ऊंगली कुछ कट गयी है।'
सुनते ही सुभद्रा, महिषीयाँ सभी वस्त्र ढूंढने दौड़ीं। द्रौपदी नवीन वस्त्रों से
सुसज्जित वहीं पर थी। उसने तुरन्त अपनी साड़ी का किनारा फाड़ा व भगवान की ऊँगली पर बाँध दिया।
यह घटना या यह कृत्य कुछ विशेष नहीं परन्तु भगवान, द्रौपदी के इस ॠण को भूले नहीं। जब ॠण उतारने का समय आया तो इतनी साड़ीयाँ दीं कि सहस्र हाथियों के बराबर बल रखने वाला दुःशासन साड़ी खींचता-खींचता थक गया परन्तु साड़ीयाँ खत्म नहीं हुईं। भगवान के लिये कोई थोड़ा सा भी करे तो भी भगवान उसे बहुत ज्यादा समझते हैं।
यह कोई कहानी या कल्पना नहीं हैं। यह हमारे इतिहास की सच्ची घटनायें हैं। मर्त्य जगत के व्यापार, लेने-देन अस्थायी तो हैं ही, दुःखदायी भी हैं। अगर लेन-देन-व्यापार करना ही है तो भगवान के साथ करो, भगवान के लिये करो क्योंकि उसी में आनन्द है।
लक्ष्मीपति की सेवा करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न नहीं होंगी क्या?
और लक्ष्मीजी जिस पर प्रसन्न हों तो क्या वह निर्धन रहेगा?
फिर भगवान तो सच्चिदानन्द हैं, सच्चिदानन्द अर्थात् आनन्द की घनीभूत मूर्ति। जब आपके साथ व्यापार करने वाला आनन्द का स्रोत है तो उसका धन अर्थात् आनन्द आपको भी तो आयेगा।.jpg)
अब आप ही सोचिये जगत में ऐसा कौन सा व्यापार है जिसमें आनन्द भी है और बेतहाशा दौलत भी। फिर ये आनन्द कभी भी खत्म होने वाला नहीं , ये आनन्द नित्य है व अनन्त है।
.jpg)

.jpg)

.jpg)
.jpg)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें