श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार किसी भी व्यक्ति का जूठा खाना वैसे तो तमोगुणी भोजन होता है जोकि हमारे अन्दर निद्रा-आलस्य-क्रोध व ईर्ष्या आदि को बढ़ाता है ।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ (17/10)

परन्तु यही जूठन यदि भगवान की हो, तो वह महाप्रसाद कहलाती है जोकि हमारे जन्म-मृत्यु के चक्र को समाप्त करने में पूर्ण समर्थ है।
ये बात अलग है कि कम पुण्य या कम सुकृतियों से जैसे भगवान में व भगवान के विग्रह में विश्वास नहीं होता है उसी प्रकार पुण्यों की कमी से प्रसाद की दिव्यता का भी अनुभव नहीं होता है।
संसार में भी देखा जाता है कि हम लोग सब जूठन नहीं खाते। सिर्फ उनकी जूठन लेते हैं जिनसे हमारा प्यार होता है या अपना प्यार बढ़ाना होता है।
भगवान का प्रसाद जिस तरह से हमारे अन्दर भगवान के प्रति प्यार बढ़ाता है उसी प्रकार भगवान के प्रेमी भक्तों की जूठन को खाने से साधक को हरि-भजन करने में ताकत मिलती है।
महान वैष्णव आचार्य व श्रीश्रीराधा-मदनमोहन जी के विशेष कृपा-पात्र श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत में कहा है कि हमारे सनातन धर्म के ग्रन्थों के अनुसार वैष्णवों के चरणों की धूलि, वैष्णवों के चरणों का जल तथा वैष्णवों की जूठन से कृष्ण भजन करने के लिए आत्म-बल बढ़ता है।
पुनः पुनः सर्व शास्त्रे फुकारिया कय ॥ (श्रीचैतन्य चरितामृत, अन्त्य लीला, 16/ 60-61)
जिस तरह भगवान की जूठन को महाप्रसाद कहा जाता है, उसी तरह भगवान के प्रेमी भक्तों की जूठन को महा-महा-प्रसाद कहा जाता है।
दोनों तरह के प्रसाद पाने से हमारा भगवान में और उनके प्रेमी भक्तों में प्यार बढ़ता है, हमें भगवद् भक्ति की प्राप्ति होती है। और इस जीवन के बाद भगवान के उस धाम में भगवान की सेवा की प्राप्ति होती है जहाँ से दोबारा लौट कर जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं आना पड़ता।
यही कारण है कि भगवान के भक्त लोग, अपने परिवार के लोगों का, अपने रिश्तेदारों का व समाज के व्यक्तियों का तथा देवी-देवताओं का सम्मान करते हैं परन्तु उनका प्रसाद नहीं खाते।

भगवद् भक्त लोग अपना प्यार भगवान से असीम मात्रा तक बढ़ाना चाहते हैं, इसलिए अपनि दिनचर्या में जो भी खाते हैं, भगवान को भोग लगाकर उनका प्रसाद ही खाते हैं।
भगवान का प्रसाद जिस तरह से हमारे अन्दर भगवान के प्रति प्यार बढ़ाता है उसी प्रकार भगवान के प्रेमी भक्तों की जूठन को खाने से साधक को हरि-भजन करने में ताकत मिलती है।
भक्तभुक्त-शेष, -- एइ तिन साधनेर बल॥
एइ तिन सेवा हैते कृष्णप्रेमा हय ।
जबकि दूसरी ओर देवी-देवताओं का प्रसाद पाने से हमारा देवी-देवताओं के
रति अनुराग बढ़ता है । श्रीमद् भगवद् गीता (7/23) के अनुसार अन्त में हमें उन्हीं देवी-देवताओं के स्वर्ग, इत्यादि धामों में वास मिलता है। श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन के माध्यम से हमें यह भी बताते हैं कि देवी-देवताओं के धाम जाने के बाद फिर पुनर्जन्म होता है अर्थात् देवी-देवताओं का भजन करने से, उनका प्रसाद खाने से व उनके धाम तक पहुँचने पर भी जन्म-मृत्यु का चक्र खत्म नहीं होता है (श्रीगीता 8/16)।
रति अनुराग बढ़ता है । श्रीमद् भगवद् गीता (7/23) के अनुसार अन्त में हमें उन्हीं देवी-देवताओं के स्वर्ग, इत्यादि धामों में वास मिलता है। श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन के माध्यम से हमें यह भी बताते हैं कि देवी-देवताओं के धाम जाने के बाद फिर पुनर्जन्म होता है अर्थात् देवी-देवताओं का भजन करने से, उनका प्रसाद खाने से व उनके धाम तक पहुँचने पर भी जन्म-मृत्यु का चक्र खत्म नहीं होता है (श्रीगीता 8/16)।
यदि भगवान का प्रसाद देवी-देवताओं को अर्पित किया जाय तो उस प्रसाद को पाकर देवी-देवता बहुत प्रसन्न होते हैं तथा उस महाप्रसाद को ग्रहण किया जा सकता है।






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