मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

भगवान से क्या माँगें?

एक महान संत श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी कहा करते थे कि एक बार किसी बच्चे की तबीयत खराब हो गयी। माता-पिता उसे डाक्टर के पास ले गये। डाक्टर ने रोग देखा व दवा लिख दी। कुछ दिन बाद माता-पिता चिकित्सक को मिलने गये व कहने लगे, 'डाक्टर साहब ! हमारा पुत्र अभी ठीक नहीं हुआ।'

डाक्टर ने पूछा, 'क्यों? आपने दवाई तो ठीक से दी है न?'

बच्चे के पिता ने कहा, 'डाक्टर साहब ! दवाई इतनी कड़वी है कि वह खा ही नहीं पा रहा । दवाई के नाम लेते ही भाग खड़ा होता है। हम क्या करें?'

डाक्टर ने कहा कि बिना दवाई के बालक सवस्थ नहीं होगा ।
कुछ सोच-विचार के बाद चिकित्सक ने पूछा, 'आपके पुत्र को खाने में क्या पसन्द है?'
माता ने कहा, 'उसे रसगुल्ले पसंद हैं।'

डाक्टर ने कहा, 'ठीक है, आप शाम को रसगुल्ले लेकर, बच्चे के साथ मुझे मिलने आना।'

संध्या के समय माता-पिता उस बालक को व रसगुल्लों से भरा एक डिब्बा लेकर डाक्टर के आस आ गये। डाक्टर ने बालक के सामने ही रसगुल्ले का डिब्बा खोला व एक रसगुल्ला निकाल कर प्लेट में रखा। बालक रसगुल्ले को ललचाई आँखों से देखने लगा। डाक्टर ने कहा, 'बेटा ! यह दवाई खाओ ।'

बालक ने बोला, 'कड़वी है, नहीं खाऊँगा।'

डाक्टर - 'अच्छा, रसगुल्ला खाओगे?'

'हाँ, जी।'

'पहले दवाई खाओ, फिर रसगुल्ला मिलेगा।'

बालक ने रसगुल्ले के लोभ में तुरुन्त दवाई खा ली व ऊपर से मुख में रसगुल्ला रख लिया।
बालक ने यही सोचा कि दवाई खाने का यही फायदा है कि इसे खाने से रसगुल्ला मिलता है। किन्तु वास्तविकता यह नहीं थी। रसगुल्ला तो एक प्रलोभन था। दवाई देने की वजह था। दवाई ने ही उस बच्चे को स्वस्थ करना था, रसगुल्ले ने नहीं।

हम अक्सर देखते हैं कि हर ग्रन्थ के अध्याय के अन्त में, किसी व्रत जैसे एकादशी के माहात्म्य के अंत में, इत्यादि लिखा होता है कि अमुक व्रत करने से या अमुक पाठ करने से धन, राज्य, सुन्दर रूप, पुत्र आदि की प्राप्ति होती है। यह सब तो एकमात्र प्रलोभन देने हेतु दिये होते हैं क्योंकि संसारिक व्यक्ति को न तो भगवान की आवश्यकता महसूस होती है, न ही उसे भगवान की भक्ति का महत्व अनुभव होता है।

उसे यही पता होता है कि अमुक व्रत जैसे एकादशी व्रत, या अमुक अनुष्ठान जैसे नाम-संकीर्तन, आदि करनेसे पाप धुलते हैं, धन-पुत्र, आदि की प्राप्ति होती है। जबकि वास्तविकता यह है कि ये प्रलोभन दिखाकर हमारे ॠषि, हम संसारिक मनुष्यों को उनके नित्य कल्याण के लिये, उन्हें भगवान की भक्ति में नियोजित करते हैं।

यह बात अलग है कि इन धार्मिक अनुष्ठानों से मनुष्यों को धन, राज्य, सुन्दर रूप, पुत्रादि की प्राप्ति होती ही है, ठीक उसी प्रकार जैसे बालक को दवाई खाने के उपरान्त रसगुल्ला मिला था।

ये बात बिल्कुल सही है की एकादशी व्रत करने से भगवान श्रीहरि बड़े प्रसन्न होते हैं, तथा वे मनुष्य का दुर्भाग्य, गरीबी व क्लेश समाप्त कर देते हैं परन्तु समझने वाली बात यह है कि जो भगवान श्रीहरि अपनी भक्ति से प्रसन्न होकर या हरि-भक्ति के एक अंग एकादशी से प्रसन्न होकर हमारे दुःख हमेशा-हमेशा के लिये मिटा सकते हैं, हमें श्रीहनुमान जी की तरह हर समय अपनी सेवा का सौभाग्य दे सकते हैं, अपना सखा बना सकते हैं, यहाँ तक की अपने माता-पिता का अधिकार व मधुर रस तक का अधिकार प्रदान करने हमें धन्यातिधन्य बना सकते हैं,……

……उन भगवान से दुनियावी थोड़ी सी बे-इज्जती से बचने का सौभाग्य माँगना, कक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होने की दुआ माँगना, किराये के मकान की जगह अपना मकान माँगना, कहाँ की समझदारी है?
जो भगवान सुदामा जी को बिना माँगे रातों-रात अतुलनीय सम्पदा का मालिक बना सकते हैं, घर में अपनी सौतेली माँ से बे-इज्जत हुए ध्रुव को विशाल सम्राज्य दे सकते हैं, व उन्हें हमेशा के लिये अपने चरणों में स्थान दे सकते हैं, भयानक विपत्ती से गजेन्द्र की, द्रौपदी की व प्रह्लाद आदि भक्तों की रक्षा कर सकते हैं, तो वे आपके लिए क्या नहीं कर सकते?
यदि भगवान आपकी सुन ही रहे हैं या आप भगवान से प्रार्थना कर ही रहे हैं तो भगवान से उनकी अहैतुकी भक्ति माँगें, जिसके मिलने से सिर्फ आप ही नहीं, आपके सारे परिवार का व आपके कई जन्मों के पिता-माताओं का नित्य कल्याण हो जायेगा।

अतः यदि आप एकादशी व्रत करते हैं तो भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की शिक्षाओं के अनुसार हमें भगवान से एकादशी व्रत के बदले दुनियावी सौभाग्य, गरीबी हटाना, इत्यादि की प्रार्थना नहीं करनी चाहिए। वैसे कुछ ना माँगना ही अच्छा है । पर अगर माँगने की इच्छा ही है तो भगवान से उनकी नित्य - अहैतुकि भक्ति माँगे । अर्थात् हमेशा-हमेशा हम परम आनन्द के साथ अपने प्रभु की विभिन्न प्रकार की सेवायें करते रहें, इस प्रकार की प्रार्थना करनी चाहिए।

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