श्रीसमर्थ रामदासजी के एक सेवक को उसके सरल स्वभाव के कारण लोग प्यार से भैंडा-भगत के नाम से बुलाते थे। एक बार श्री समर्थ रामदास जी को प्रचार हेतु बाहर जाना थ । उनके सभी शिष्यों ने कहा कि वे भी उनके साथ चलेंगे। कोई भी मंदिर में पूजा-अर्चना के लिये रुकने को तैयार नहीं हुआ। अंत में श्री समर्थ रामदास जी ने भैंडा-भगत को बुलाया और कहा कि सब कुछ दिनों के लिये बाहर जा रहे हैं, अत: मंदिर की देखभाल उसे करनी होगी। अगले दिन भैंडा-भगत ने स्नान करके मंदिर के कपाट खोले। फिर उसे गुरुजी की बात याद आई कि जैसे हमारी दिनचर्या, वैसी ही ठाकुरजी की दिनचर्या। वह पानी से भरे चार लोटे ले आया, और एक -एक लोटा उसने श्रीराम, लक्ष्मण, सीता व हनुमान जी की मूर्तियों के आगे रख दिया। उसका भाव था कि जैसे मानव प्रा:त निवृत होने जाता है, वैसे ही भगवान भी जाएंगे। वह इस बात से बिल्कुल परिचित नहीं था कि भगवान हम मनुष्यों जैसा पंचभौतिक शरीर धारण नहीं करते। वे तो सच्चिदानन्द होते हैं, अत: वे विसर्जन नहीं करते।
कुछ देर के बाद दूसरे कार्य निपटा कर जब वह वापस आया तो उसने देखा लोटे उसी तरह रखे हैं और भगवान वहीं उपस्थित हैं। वह घबराकर भगवान से विनती करने लगा कि आप जा क्यों नहीं रहे? विनती का कोई असर नहीं होते देख वह रोते हुए अपने गुरुजी को पुकारने लगा कि हे गुरुदेव ! मुझे मंत्र नहीं आते और भगवान मेरी बात सुन नहीं रहे । अब मेरी सेवा का क्या होगा?
उसका रोदन व सरलता देखकर श्रीराम ने सीताजी की ओर देखा व इशारे से कहा कि चलो, नहीं तो यह ऐसे ही रोता रहेगा। तब राम, सीता, लक्ष्मण , हनुमान अपने - अपने सिहांसन से उतरे, लोटा उठाया व बाहर चले गए। वहाँ से आने के बाद उसने सबके मिट्टी से हाथ धुलवाये। सभी को दातुन दी। सभी बैठकर दातुन करने लगे। इसी बीच उसने सभी के लिए स्नान का पानी तैयार कर दिया। कुछ देर में भोजन का समय हो गया। भैंडा-भगत बड़ी चिंता करने लगा कि अब क्या किया जाए, क्योंकि मठ में कुछ खाने को नहीं था और उसे कुछ बनाना भी नहीं आता था। यह सोच कर वह अधीर हो गया और फिर रोने लगा। भक्त वत्सल भगवान अपने भक्तों का दु:ख नहीं देख पाते।
उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आया और उसने भैंडा-भगत से रोने का कारण पूछा। सारी बात जानकर ब्राह्मण बोला कि आप चिन्ता ना करें, मैं सारा सामान ले आता हूँ । ब्राह्मण सामान ले आया तो एक बूढ़ी स्त्री वहां आई और कहने लगी कि अगर आप आज्ञा दें तो भगवान के लिए मैं भोग पका देती हूँ।
भैंडा-भगत को तो मनचाही मुराद मिल गई । बूढ़ी माताजी भोग बनातीं और भैंडा भगत भगवान को भोग लगाता और भगवान को खिलाता। धीरे-धीरे इतना भोजन बनने लगा कि मंदिर में भंडारे होने लगे। इससे भैंडा-भगत की ख्याति चारों ओर फैल गई । यह बात श्री समर्थ रामदास जी तक भी पहुँची। भैंडा - भगत के गुरु-भाइयों ने कहा कि अगर वहाँ भंडारे हो रहे हैं तो हम सब यहाँ धूल क्यों फांक रहे हैं?





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