अक्तूबर 2006 में जब श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी आँखों के डाक्टर को मिलने के लिए दिल्ली से कुछ दिन के लिए चण्डीगढ़ (भारत के दो राज्य पंजाब व हरियाणा की संयुक्त राजधानी) गये थे तो आपकी एक शिष्या ने बात करते-करते आपके सेवक से कहा - प्रभुजी ! मैं बहुत दुःखी हूँ, कई बार मन तो करता है कि मैं आत्म-हत्या कर लूँ लेकिन मैंने सुना है कि गुरुजी इसे बिल्कुल पसन्द नहीं करते। आत्म-हत्या करने वाले पर गुरुजी असन्तुष्ट हो जाते हैं। वे उसे बेवकूफ समझते हैं । परन्तु मेरी ऐसी हालत हो गयी है कि ज़रा सा भी मन नहीं करता दुनियाँ में रहने का। पूज्यपाद निष्किंचन महाराज जी भी अपने प्रवचन में बताते हैं कि आत्म-हत्या करना महापाप है । आत्म-हत्या करने वाले की नरकों में या प्रेत-जन्म में बड़ी दुर्गति होती है क्योंकि उसने भगवान के दिये अनमोल मनुष्य जीवन को व्यर्थ में ही खत्म कर दिया। लेकिन प्रभुजी! मैं क्या करूँ, मैं घर में इतनी तंग आ गयी हूँ कि मुझे कुछ सूझता ही नहीं है कि मैं क्या करूँ? कई बार तो परेशान होकर हरिनाम भी करने को मेरा मन नहीं करता। इसलिए आपसे विनती है कि आप जैसे भी हो, थोड़ी देर के लिए अलग से मुझे गुरुजी से मिलवा दें। सचमुच ॠणी रहूँगी मैं आपकी ।
सेवक ने कहा कि बात ॠणी रहने या नहीं रहने की नहीं है। गुरुजी तो अस्वस्थ लीला कर रहे हैं, उसमें यह सम्भव नहीं होगा। हाँ, ये हो सकता है कि आज दोपहर में 11 से 12 बजे तक दर्शन खुलेंगे । गुरुजी सभी को अपने हाथों से प्रसाद बांटेगे, तब आप सबसे आखिर में प्रसाद लेना, तब मैं गुरुजी से निवेदन कर दूँगा और आप वहाँ बैठ जाना फिर जो पूछना हो पूछ लेना, लेकिन ज्यादा समय मत लगाना। नहीं - नहीं, ज्यादा समय नहीं लगाऊँगी। बस, अलग से उनका आशीर्वाद लेना है। ऐसा ही हुआ। दोपहर में प्रसाद पाने से पहले श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी (गुरुजी) सभी को दर्शन दे रहे थे। लोग लाईन बनाकर आप से प्रसाद ले रहे थे। अन्त में वह बहिन जी आयीं तो सेवक ने थोड़ा आगे बढ़कर आप से कहा - गुरुजी ! ये आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हैं। आपने हाथ में रखे प्रसाद को वापस थाली में रख दिया और उनसे पूछा कि क्या बोलना है?
बोलने से पहले ही वह रो पड़ी जैसे छोटा बच्चा अपनी वात्सल्यमयी माँ के पास आकर अपना दिल हल्का कर लेता है । आप चुपचाप उसे देखते रहे तो थोड़ी देर बाद वह बोली - गुरु महाराज जी ! मैं बड़ी परेशान हूँ। क्या परेशानी है ? - बड़े स्नेह के साथ आपने पूछा। तब उसने बताना शुरु किया कि उनके ससुर व उनकी सास कैसे तंग करने वाला व्यवहार करते हैं उनसे तथा कैसे-कैसे ताने कसती है उनकी ननद। सबसे ज्यादा दुःख तो ये है कि जिनके लिए मैं अपने माता-पिता व घर को छोड़ कर आयी वे पति भी मेरे प्रति सहानुभूति नहीं रखते, वे भी उनकी हाँ - में - हाँ मिलाते रहेंगे । गुरु महाराज जी! सचमुच मैं बड़ी दुःखी हूँ, आप बस मुझ पर कृपा करें। उसकी सारी बात सुनने के बाद बड़े स्नेह के साथ व गम्भीरता के साथ आपने उससे पूछा -- क्या उन्होंने कभी तुम्हें पहाड़ से लुढ़काया? रोते-रोते बहिन जी बोलीं - नहीं। क्या कभी धधकती आग में तुम्हें फेंका या ज़हर वाले सांपों से डसवाया? नहीं। तो फिर क्या कष्ट देते हैं? थोड़ा बोलते ही होंगे। श्रीप्रह्लाद जी को उनके पिता हिरण्यकशिपु ने और उनके अनुयायी असुरों ने कितना कष्ट दिया -- क्या कभी उन्होंने अपने पिताजी का अपमान किया? साष्टांग प्रणाम करते थे श्रीप्रह्लाद जी अपने पिता जी को। शरणागत-भक्त, जीवन के हरेक परिस्थिति में Adjustment देखता है, सामन्जस्य देखता है, उसे हरेक परिस्थिति में भगवान की कृपा का अनुभव होता है। इतना कह कर आपने उन बहिन जी को पूछा - हरिनाम - दीक्षा कब हुई आपकी? उत्तर में वह बहिन बोली - लगभग 10 - 11 साल हो गये हैं। बड़ी हैरानी के साथ आपने उन्हें कहा - इतने सालों में कभी प्रह्लाद चरित्र या ध्रुव चरित्र सुना नहीं? कई बार सुना गुरु महाराज जी ! यदि जीवन में नहीं उतारा तो फिर उस सुनने का क्या फायदा हुआ ? - आपने कहा। ध्रुव जी को उनकी माताजी ने व उनके गुरुजी ने बताया था कि अपने दु:ख के लिए किसी को दोष मत दो, जीव वही दु:ख भोग करता है जो उसने पहले किसी को दिया होता है -- मा मंगल तात परेषुमंस्था, भुक्ते जनो यत् परदुःखस्तत् ॥ (भा॰ 4/8/17) आपने आगे कहा - ये जो तुम कह रही हो कि तुम्हारे घर वाले ऐसा-ऐसा करते हैं । यदि तुम्हारे घर वालों से पूछूँगा तो वे कुछ और कहेंगे। वे तुम्हारी गल्तियाँ बतायेंगे। इसलिए जो हुआ सो हुआ। ध्रुव जी की तरह हरेक दुःख को अपने ही किये कर्मों का फल समझकर चुपचाप उसे सहन करो। आगे से कोई भी ऐसा आचरण मत करो, जिसका परिणाम दुःख हो, और शरणागत भाव से भगवान का भजन करो -- हरिनाम करो। भगवान भक्त-वत्सल हैं, दयालु हैं, कृपालु हैं, शरणागत की रक्षा करने वाले हैं तथा साथ ही सर्वशक्तिमान हैं। उनका भजन करने से वे असम्भव को भी सम्भव कर सकते हैं। इतना कह कर आपने थाली से बर्फी का प्रसाद उठाया और उनको दे दिया। बहिन जी ने प्रसाद लिया और प्रणाम करके उठने लगी तो आपने कहा - सुबह / शाम नृसिंह मन्त्र भी करना, सब ठीक हो जाएगा।
सेवक ने कहा कि बात ॠणी रहने या नहीं रहने की नहीं है। गुरुजी तो अस्वस्थ लीला कर रहे हैं, उसमें यह सम्भव नहीं होगा। हाँ, ये हो सकता है कि आज दोपहर में 11 से 12 बजे तक दर्शन खुलेंगे । गुरुजी सभी को अपने हाथों से प्रसाद बांटेगे, तब आप सबसे आखिर में प्रसाद लेना, तब मैं गुरुजी से निवेदन कर दूँगा और आप वहाँ बैठ जाना फिर जो पूछना हो पूछ लेना, लेकिन ज्यादा समय मत लगाना। नहीं - नहीं, ज्यादा समय नहीं लगाऊँगी। बस, अलग से उनका आशीर्वाद लेना है। ऐसा ही हुआ। दोपहर में प्रसाद पाने से पहले श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी (गुरुजी) सभी को दर्शन दे रहे थे। लोग लाईन बनाकर आप से प्रसाद ले रहे थे। अन्त में वह बहिन जी आयीं तो सेवक ने थोड़ा आगे बढ़कर आप से कहा - गुरुजी ! ये आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हैं। आपने हाथ में रखे प्रसाद को वापस थाली में रख दिया और उनसे पूछा कि क्या बोलना है?
बोलने से पहले ही वह रो पड़ी जैसे छोटा बच्चा अपनी वात्सल्यमयी माँ के पास आकर अपना दिल हल्का कर लेता है । आप चुपचाप उसे देखते रहे तो थोड़ी देर बाद वह बोली - गुरु महाराज जी ! मैं बड़ी परेशान हूँ। क्या परेशानी है ? - बड़े स्नेह के साथ आपने पूछा। तब उसने बताना शुरु किया कि उनके ससुर व उनकी सास कैसे तंग करने वाला व्यवहार करते हैं उनसे तथा कैसे-कैसे ताने कसती है उनकी ननद। सबसे ज्यादा दुःख तो ये है कि जिनके लिए मैं अपने माता-पिता व घर को छोड़ कर आयी वे पति भी मेरे प्रति सहानुभूति नहीं रखते, वे भी उनकी हाँ - में - हाँ मिलाते रहेंगे । गुरु महाराज जी! सचमुच मैं बड़ी दुःखी हूँ, आप बस मुझ पर कृपा करें। उसकी सारी बात सुनने के बाद बड़े स्नेह के साथ व गम्भीरता के साथ आपने उससे पूछा -- क्या उन्होंने कभी तुम्हें पहाड़ से लुढ़काया? रोते-रोते बहिन जी बोलीं - नहीं। क्या कभी धधकती आग में तुम्हें फेंका या ज़हर वाले सांपों से डसवाया? नहीं। तो फिर क्या कष्ट देते हैं? थोड़ा बोलते ही होंगे। श्रीप्रह्लाद जी को उनके पिता हिरण्यकशिपु ने और उनके अनुयायी असुरों ने कितना कष्ट दिया -- क्या कभी उन्होंने अपने पिताजी का अपमान किया? साष्टांग प्रणाम करते थे श्रीप्रह्लाद जी अपने पिता जी को। शरणागत-भक्त, जीवन के हरेक परिस्थिति में Adjustment देखता है, सामन्जस्य देखता है, उसे हरेक परिस्थिति में भगवान की कृपा का अनुभव होता है। इतना कह कर आपने उन बहिन जी को पूछा - हरिनाम - दीक्षा कब हुई आपकी? उत्तर में वह बहिन बोली - लगभग 10 - 11 साल हो गये हैं। बड़ी हैरानी के साथ आपने उन्हें कहा - इतने सालों में कभी प्रह्लाद चरित्र या ध्रुव चरित्र सुना नहीं? कई बार सुना गुरु महाराज जी ! यदि जीवन में नहीं उतारा तो फिर उस सुनने का क्या फायदा हुआ ? - आपने कहा। ध्रुव जी को उनकी माताजी ने व उनके गुरुजी ने बताया था कि अपने दु:ख के लिए किसी को दोष मत दो, जीव वही दु:ख भोग करता है जो उसने पहले किसी को दिया होता है -- मा मंगल तात परेषुमंस्था, भुक्ते जनो यत् परदुःखस्तत् ॥ (भा॰ 4/8/17) आपने आगे कहा - ये जो तुम कह रही हो कि तुम्हारे घर वाले ऐसा-ऐसा करते हैं । यदि तुम्हारे घर वालों से पूछूँगा तो वे कुछ और कहेंगे। वे तुम्हारी गल्तियाँ बतायेंगे। इसलिए जो हुआ सो हुआ। ध्रुव जी की तरह हरेक दुःख को अपने ही किये कर्मों का फल समझकर चुपचाप उसे सहन करो। आगे से कोई भी ऐसा आचरण मत करो, जिसका परिणाम दुःख हो, और शरणागत भाव से भगवान का भजन करो -- हरिनाम करो। भगवान भक्त-वत्सल हैं, दयालु हैं, कृपालु हैं, शरणागत की रक्षा करने वाले हैं तथा साथ ही सर्वशक्तिमान हैं। उनका भजन करने से वे असम्भव को भी सम्भव कर सकते हैं। इतना कह कर आपने थाली से बर्फी का प्रसाद उठाया और उनको दे दिया। बहिन जी ने प्रसाद लिया और प्रणाम करके उठने लगी तो आपने कहा - सुबह / शाम नृसिंह मन्त्र भी करना, सब ठीक हो जाएगा।
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