सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज जी - आविर्भाव तिथि पर विशेष

एक बार श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज जी मुम्बई प्रचार में गये। वहाँ आपको थियोसोफिकल सोसाइटी में भाषण देने का निमन्त्रण दिया गया। वहाँ पर आपने कहा कि जिस प्रकार जिसके पास धन है, उसे धनवान कहते हैं, जिसके पास रूप है उसे रूपवान कहते हैं, जिसके पास गुण हैं उसे गुणवान कहते हैं, उसी प्रकार जिसके पास शक्ति है, उसे भगवान कहते हैं। क्योंकि 'भग' का अर्थ होता है - 'शक्ति' । ध्यान रहे, यहाँ पर निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि यह शक्ति या वो शक्ति, अर्थात समस्त शक्तियुक्त तत्त्व को भगवान कहते हैं। कहने का अर्थ है भगवान शब्द का अर्थ होता है -- 'सर्वशक्तिमान'। वे भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं । क्योंकि वे असीम हैं, पूर्ण हैं, इसलिये उन्हें कोई जान नहीं सकता, प्राप्त नहीं कर सकता। यदि कोई कहे कि मैंने असीम भगवान को जान लिया है तो भगवान असीम नहीं रहेंगे, पूर्ण भगवान, पूर्ण नहीं रहेंगे । अतः सिद्धान्त यह है कि असीम को कोई जान नहीं सकता, प्राप्त नहीं कर सकता।                                                                                              
                भाषण के उपरान्त उस सोसाइटी के प्रधान आपको मिलने आये व बड़े ही विनम्र शब्दों में बोले , 'स्वामी जी , आपका भाषण तो बहुत गम्भीर था परन्तु मेरा एक प्रश्न है । आपने कहा की भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं, इसलिये उन्हें कोई जान नहीं सकता, प्राप्त नहीं कर सकता, तब आप लोगों ने किसलिये संसार छोड़ा है ? जब भगवान मिलने ही नहीं हैं तो यह त्याग, वैराग्य तो सब व्यर्थ है।'          
                                                                                                 तब आपने कहा, 'भगवान सर्व-शक्तिमान हैं, असीम हैं, पूर्ण हैं, इसलिये भगवान को हम प्राप्त कर सकते हैं, जान सकते हैं।'                                                                                                                          
           प्रधान जी ने उत्तर सुन कर कहा, 'आपको साधु-महात्मा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वकील लोग ही सच को झूठ करते हैं व झूठ को सच बना देते हैं। पहले आपने कहा कि भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं, इसलिये उन्हें कोई जान नहीं सकता, प्राप्त नहीं कर सकता किन्तु अब आप कहते हैं कि भगवान असीम हैं, पूर्ण हैं, सर्व-शक्तिमान हैं, इसलिये उन्हें जाना जा सकता है व प्राप्त किया जा सकता है?'                                                

                                                                                                                                      तब श्रील श्रीधर महाराज जी ने मुस्कुराते हुये कहा कि असीम , पूर्ण व सर्वशक्तिमान भगवान को हम अपनी हिम्मत से, अपनी ताकत से प्राप्त करे लें तो असीम की असीमता नहीं रहेगी, पूर्ण की पूर्णता नहीं रहेगी। लेकिन उसी असीम में, सर्वशक्तिमान भगवान में यदि अपने आप को जनाने के लिये शक्ति ना हो, वे अपना असीमत्त्व व पूर्णत्व किसी को अनुभव ना करवा सकें तो भी हम उन भगवान को 'सर्वशक्तिमान ', 'पूर्ण' व 'असीम' नहीं कह सकते क्योंकि उनके अंदर अपने आप को जनाने की शक्ति नहीं है। अतः सही सिद्धान्त  यह है कि केवल मात्र अपनी कोशिशों से तथा अपनी हिम्मत से असीम, पूर्ण, सर्वशक्तिमान भगवान को नहीं जाना जा सकता। जबकि दूसरी ओर भगवान की कृपा से भगवान को जाना जा सकता है। इससे असीम भगवान की अस्सिमता, पूर्ण की पूर्णता
व सर्वशक्तिमान की सर्वशक्तिमत्त में कोई हानि नहीं होती।                                                                          
            अर्थात् भगवान जब तक कृपा करके किसी को दर्शन नहीं देंगे तब तक कोई भी जबरदस्ती भगवान के दर्शन नहीं कर सकता। इसी प्रकार भगवान जब तक किसी को अपना दिव्य ज्ञान नहीं देते, तब तक कोई भी उनका ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता।                                                                                                                                                                                          
                                    

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