पद - नख - नीर जनित जन पावन,
केशव-धृत वामन-रूप,
जय जगदीश हरे, जय जगदीश हरे॥
हे केशव ! हे श्रीवामन का रूप धारण करने वाले, जगदीश
, हे भक्तों का अंहकार हरने वाले, तुम्हारी जय हो। क्योंकि तुम, बलि राजा के द्वारा
दी हुई पृथ्वी को नापते समय, बलि राजा को छलते रहते हो, अतः अद्बुत वामन रूप वाले
हो, उसी समय तुम्हारे चरण-नख से उत्पन्न हुये गंगाजल के द्वारा, तुम समस्तजनों को
पवित्र बनाने वाले हो।
बारह महीनों में हर महीने का एक अधिष्ठाता देव होता
है। अषाढ़ महीने के अधिष्ठाता देव, भगवान श्रीवामन देव हैं। ब्रह्मा के एक दिन
(कल्प) में 14 मन्वन्तर [1 मन्वन्तर = 71 * चतुर्युगी (1 चतुर्युगी = चारों युग का
कुल समय )] होते हैं। हरेक मन्वन्तर में भगवान प्रकट होते हैं, और उस अवतार को मन्वन्तर
अवतार कहा जाता है । श्री वामन देव वैवस्वत मन्वन्तर (7वें मन्वन्तर) के मन्वन्तर
अवतार कहलाते हैं ।
कश्यप ॠषि व माता अदिति की तपस्या से प्रसन्न होकर
भगवान ने उनके यहाँ प्रकट होने का वचन दिया। श्रावन महीने के 12वें दिन, अभिजीत्त
नक्षत्र में भगवान चतुर्भुज रूप में, शंख - चक्र-गदा-पद्म लिये, पीताम्बर पहने
कश्यप ॠषि व माता अदिति के समक्ष प्रकट हो गये। उनके देखते ही देखते भगवान के वामन
रूप धारण कर लिया। माता-पिता ने उनके सभी संस्कार सम्पन्न किये।
उसी समय महाराज बलि ने नर्मदा नदी के किनारे भृगु-कछ
क्षेत्र में यज्ञ प्रारम्भ किया था। जैसे एक नवीन दीक्षित ब्राह्मण भिक्षा मांगने
जाता है, उसी प्रकार भगवान वामन देव बलि महाराज की यज्ञ-शाला कि ओर चल दिये। बहुत
से याचक ब्राह्मण उधर जा रहे थे। सभी तेजी से चल रहे थे, परन्तु भगवान की अचिन्त्य
शक्त्ति के प्रभाव से कोई भी उनसे पहले वहाँ नहीं पहुँचा। जैसे ही भगवान वहाँ
पहुँचे, यज्ञ की अग्नि मंद पड़ गयी। बलि महाराज समझ गये कि कोई तेजस्वी याचक आया है।
सब तुरन्त खड़े हो गये व श्रीवामन देव के स्वागत में जुट गये।
बलि महाराज के निवेदन करने पर श्रीवामन देव ने उनके
पूर्वजों की बड़ाई की व अपने लिये तीन पग भूमि की माँग की। अपने गुरु शुक्राचार्य के
मना करने पर भी बलि महाराज ने संकल्प लिया कि वे ब्राह्मण को तीन पग भूमि देंगे।
संकल्प होते ही वामन भगवान ने विशाल रूप धरा व दो पगों में ही सारा त्रि-जगत नाप
लिया।
अब आप तीसरे पग कहाँ रखें, यह कह कर बलि महाराज से
प्रश्न करने लगे। अपनी धार्मिक पत्नी विन्धयावली के सुझाव पर श्री बलि महाराज ने
भगवान से तीसरा पग उनके (बलि महाराज के) सिर पर रखने का निवेदन किया। भगवान की नाभि
से तीसरा पग निकला और बलि महाराज के सिर पर सुशोभित हो गया।
श्रीबलि महाराज ने आत्मनिवेदन (नवधा भक्ति में से एक)
के माध्यम से भगवान को प्रसन्न कर लिया।
भगवान ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें सुतल लोक का राज्य
दिया और सुदर्शन चक्र को उनकी रक्षा का भार सौंपा।
बाद में भगवान श्री वामन देव ने बलि महाराज के गुरु
शुक्राचार्य से कहा कि आपके शिष्य को तो बहुत कष्ट का सामना करना पड़ा है, अब आप
उनके कल्याण के लिये यज्ञ का आयोजन करें । तब श्रीशुक्राचार्य ने कहा, 'मेरे शिष्य
ने आपके दर्शन कर लिये हैं। आपका नाम, गुणगान किया है। देवताओं को भी दुर्लभ आपके
चरणों को उसने अपने सिर पर धारण किया है। क्या अब भी वो अशुद्ध है कि मुझे उसके
लिये यज्ञ करना पड़ेगा?'
'मन्त्र के उच्चारण में कुछ कमी रह सकती है,
नियमों को पालन करने में कहीं चूक हो सकती है, समय, स्थान, पात्र, वस्तु -सामान,
इत्यादि के कारण कुछ कमी रह सकती है, किन्तु जब आपका नाम वहाँ पर ले लिया जाता है
तो सब कुछ शुद्ध हो जाता है।
बोलिए, भगवान वामन देव की जय !
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण
हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
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