श्रील हरिदास जी ने वृद्ध हो जाने के कारण
संख्यापूर्वक नाम कीर्त्तन पूरा न कर पा सकने के कारण गोविन्द (भगवान चैतन्य
महाप्रभु के सेवक) के द्वारा लाये हुये महाप्रसाद को पहले तो सेवन करने में अनिच्छा
प्रकट की परन्तु बाद में यह सोचकर कि महाप्रसाद की अवज्ञा करना उचित नहीं है,
प्रसाद का एक कण ग्रहण कर लिया। महाप्रभु जी ने स्नेहाविष्ट होकर अप्राकृत
सिद्ध-देह हरिदास जी कि साधन में अधिक आग्रह न करके हरिनाम की संख्या को थोड़ा घटाने
के लिये कहा। हरिदास ठाकुर जी ने यह जानकर कि महाप्रभु जी अब लल्दी ही अपनी लीला
संवरण करेंगे, उससे पहले ही अपने अप्रकट होने की इच्छा महाप्रभु
जी के पादपद्मों में व्यक्त की। भक्तविरह में व्याकुल होने पर भी भक्तवत्सल महाप्रभु जी ने उनकी इच्छा को पूरा करने की सम्मति दे दी। हरिदास ठाकुर जी ने महाप्रभु जी को अपने सन्मुख रखकर दोनों नेत्रों से उनका मुख-कमल दर्शन करते-करते, हृदय में महाप्रभु जी के पादपद्म धारण करते हुये अश्रुसिक्त नयनों से श्रीकृष्ण चैतन्य नाम उच्चारण करते हुये भीष्म जी के समान निर्याण प्राप्त किया।
जी के पादपद्मों में व्यक्त की। भक्तविरह में व्याकुल होने पर भी भक्तवत्सल महाप्रभु जी ने उनकी इच्छा को पूरा करने की सम्मति दे दी। हरिदास ठाकुर जी ने महाप्रभु जी को अपने सन्मुख रखकर दोनों नेत्रों से उनका मुख-कमल दर्शन करते-करते, हृदय में महाप्रभु जी के पादपद्म धारण करते हुये अश्रुसिक्त नयनों से श्रीकृष्ण चैतन्य नाम उच्चारण करते हुये भीष्म जी के समान निर्याण प्राप्त किया।
भक्तों के संकीर्त्तन में मत्त हो जाने पर महाप्रभु
जी प्रेम विह्वल होकर
हरिदास जी के शरीर को गोद में उठाकर नृत्य करने लगे तत्पश्चात
भक्तों के द्वारा हरिदास ठाकुर जी के शरीर को समुद्र तट पर लाया गया व समुद्र जल
में उन्हें स्नान करवाया गया। उपरान्त, रेत में खड्डा खोदकर उसमें स्थापन किया गया।
महाप्रभु जी ने स्वयं अपने हाथों से उसमें बालु अर्पण की - इस प्रकार से श्रीहरिदास
ठाकुर जी को समाधिस्थ करने का कार्य सम्पन्न हुआ। श्रीहरिदास ठाकुर जी के
श्रीअङ्गों का स्पर्श प्राप्त करके समुद्र भी महातीर्थ बन गया। श्रीमन्महाप्रभु जी
ने श्रीलहरिदास जी की समाधि पीठ की परिक्रमा करके उनके विरहोत्सव के लिये स्वयं
भिक्षा की । स्वरूप दामोदर गोस्वामी जी ने महाप्रभु जी द्वारा एकत्रित भिक्षा को
उठाकर लाने नहीं दिया और उन्होंने स्वयं ही सब व्यवस्था की । महोत्सव में भक्तों को
कण्ठभर (कण्ठ तक भर के अर्थात् पेट भर) भोजन कराया गया। महाप्रभु जी ने प्रेमाविष्ट
होकर भक्तों को वरदान दिया, 'श्रीहरिदास जी के इस विजयोत्सव का जिन्होंने दर्शन
किया है, जिन्होंने इस उत्सव में नृत्य किया एवं जिन्होंने गान किया है, जिन्होंने
हरिदास जी को रज अर्पण करने के लिये समुद्र पर गमन किया है अथवा उनके इस महोत्सव
में प्रसाद पाया है - उन सब को अति शीघ्र ही श्रीकृष्ण-चरणों की सेवा प्राप्त होगी
-- श्री हरिदास जी के दर्शनों में ही यह शक्ति है ।'
'श्रीकृष्ण ने कृपा करके मुझे श्रीहरिदास जी का
संग प्राप्त कराया था, वे स्वतन्त्र ईश्वर हैं,
उन्होंने अपनी इच्छा से मेरा उन से वियोग करा दिया है। श्रीहरिदास जी की जब भगवद्
धाम जाने की इच्छा हुई तो मेरी यह शक्ति न थी, कि मैं उन्हें रोक सकता या रख सकता।
उन्होंने अपनी इच्छा - मात्र से अपने प्राणों को विसर्जन किया, जैसे सुना करते थे
कि श्रीभीष्मपितामह ने अपनी इच्छा से देह त्याग किया था। श्रीहरिदास जी पृथ्वीतल पर
सर्व शिरोमणि थे, अब उनके बिना यह पृथ्वी रत्न-शून्य हो गई है।'
इतना कह कर श्रीमहाप्रभु, 'जय हरिदास' कहते कहते
नृत्य करने लगे।
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