सोमवार, 19 नवंबर 2012

संग्रह


 
इस्कान के संस्थापक परमपूज्यपाद श्रील भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी ने अपने ग्रन्थ राजविद्या में लिखा ,' यदि हम एक बोरा अनाज सड़क पर बिखेर दें तो कबूतर आकर उसमें से दो चार दाने चुग कर चले जायेंगे । वे आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करेंगे और खा चुकने के बाद चले जायेंगे। किन्तु यदि हम सड़क के किनारे आटे के अनेक बोरे रख कर लोगों से कहें कि आओ और ले जायो तो एक व्यक्ति दस-बीस बोरे ले जायेगा और दूसरा पंद्रह-बीस लेकर जायेगा। किन्तु जिस व्यक्ति के पास इतने बोरे ले जाने का साधन नहीं होगा वह एक-दो बोरे ले जाने की चेष्टा अवश्य करेगा। इस तरह वितरण असमान होगा। क्या इसी को सभ्यता का विकास कहते हैं? हममें कबूतरों, इत्यादि जैसे ज्ञान का भी अभाव है। प्रत्येक वस्तु परमेश्वर की है और हम उतना ही ले सकते हैं जितने की आवश्यकता है, उससे अधिक कुछ नहीं । यही ज्ञान है। '
 
'भगवान ने संसार की ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि इसमें किसी वस्तु का अभाव नहीं है। प्रत्येक वस्तु पर्याप्त है, बशर्ते कि हम उसको वितरित करना जान सकें। किन्तु आज ऐसी दयनीय स्थिति है कि कोई आवश्यकता से अधिक लिये जा रहा है, जबकि दूसरा भूखों मर रहा है। फलस्वरूप भूखा जनसमूह विद्रोह करता है और पूछता है, 'हमीं क्यों भूखों मरें?' किन्तु उनके तौर-तरीके अपूर्ण हैं । आध्यात्मिक-साम्यवाद की पूर्णता इस ज्ञान में निहित है कि प्रत्येक वस्तु ईश्वर की है। कृष्ण - तत्त्व को जान लेने पर हम झूठे स्वामित्व की अविद्या को सरलता से पार कर सकते हैं।'
 
प्रश्न यह है कि यह ज्ञान आयेगा कैसे? एक बिमार व्यक्ति, जिसे कोई ज्ञान नहीं है, अपनी चिकित्सा स्वयं करने में अयोग्य होता है तथा उसे उपचार के लिये  विशेषज्ञ-चिकित्सक के पास जाना होता है। चिकित्सक उसकी जाँच करता है, रोग का पता लगाता है व दवाई लिखकर देता है तथा साथ ही परहेज भी बता देता है। यदि वह अस्वस्थ व्यक्ति चिकित्सक की राय के अनुसार चलकर उपचार करवाता है तो वह ठीक हो जाता है। ठीक इसी प्रकार हमें भी विशेषज्ञ विशेषज्ञ - आध्यात्मिक - चिकित्सक - एक आध्यात्मिक गुरु के पास जाना पड़ता है, जो भौतिक तापों से उत्पन्न रोगों के कारण को जानते हैं तथा जन्म-मरण के चक्र की बिमारी के पक्के उपचार की सही रामबाण दवा बताते हैं। परन्तु वर्तमान में इस पाप के काले व भ्रष्टाचार के युग अर्थात कलियुग में प्रामाणिक गुरु की प्राप्ति होना बहुत कठिन है। वास्तव में ग्रन्थों में लिखा हुया है कि शिष्य के धन को हरने वाले तो बहुत सारे तथा-कथित गुरु हो सकते हैं परन्तु शिष्य के दुःखों को हरणे वाले एक प्रामाणिक गुरु का प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि हमें गुण चाहिये तो हमें संख्या को छोड़ना होगा।
 
गुरु वही जो सद्गुरु हो। शास्त्रों के अनुसार सद्गुरु श्रौत्रिय व ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिये। सद्गुरु ही हमें जन्म-मृत्यु के चक्कर से बचा सकता है।
 
हमारे सनातन धर्म के शास्त्र बताते हैं कि ये जो चौरासी लाख योनि का चक्र है बड़ा ही विचित्र है। इसमें भटकते हुये हम नौ लाख बार जलचर, बीस लाख बार पेड़-पौधे-पत्थरों का जन्म, ग्यारह लाख बार कीड़े-मकौड़ौं का जन्म, तीस लाख बर पशु का जन्म, व दस लाख बार पक्षी का जन्म लेना पड़ता है। इतना होने के बाद सिर्फ़ चार लाख बार ही मनुष्य जीवन का सौभाग्य होता है जिसमें से भजन के उपयुक्त शरीर, मन, व बुद्धि वाला जन्म अति सौभाग्य से होता है।
 
गोस्वामी तुलसीदस जी तो कहते हैं कि मनुष्य जीवन इतना दुर्लभ व महत्वपूर्ण है कि देवता लोग भी इस जन्म के लिये तरसते हैं। उसका मूल कारण यह है कि मनुष्य अपने इस सुदुर्लभ शरीर का सदुपयोग करके भगवद्धाम को, भगवान की नित्य - भक्ति को प्राप्त करके अथाह आनन्द सागर में हमेशा-हमेशा के लिये गोते लगा सकता है।
 
किन्तु एक हम हैं जो इसका मुल्य ना समझ कर, उस समय के लिये वस्तुयेँ संजोने में लगे हैं, जिस समय को हम देख पायेंगे, यह भी गारन्टी नहीं है। 
 

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