शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

विनम्रता और भगवान


हमारे जीवन में अक्सर ऐसा समय आता है जब हमें जिज्ञासा होती है, अथवा किसी से सहायता माँगनी पड़ती है। हमें क्या प्रत्युत्तर प्राप्त होगा अथवा हमें कैसी सहायता मिलेगी, यह निर्भर करता है, कि हम किस प्रकार से सहायता मांग रहे हैं। उदाहरण के लिये मान लीजिये कि हम अपने मोबाईल फोन से अपने गंतव्य स्थल से संपर्क नहीं अथापित कर पा रहे हैं । ऐसी स्थिति में हम किसी राह - चलते व्यक्ति से सहायता माँगेगे व अपने गंतव्य स्थल का मार्ग जानने की चेष्टा करेंगे। अब हम उस व्यक्त्ति को अगर चिल्ला कर अथवा ऊँगली से इशारा करके समीप बुला कर कहते हैं, 'ए, यह जगह कहाँ पर है?' तो हम भली-भाँती जानते हैं कि हमें किस प्रकार का उत्तर मिलेगा। अगर हम समीप बुला कर कुछ विनम्रता से पूछेंगे, 'भाई साहब! कृपया बतायें कि यह स्थान पर हम कैसे पहुँच सकते हैं?' अथवा हम अपनी गाड़ी से उतर कर उस व्यक्ति के पास जाकर विनम्रता से जिज्ञासा करें तो हमें कैसा उत्तर मिलेगा।
 
कहने का तात्त्पर्य यह है कि विनम्रता हमें बहुत संकटों से बचा सकती है। उपरोक्त स्थीति में रूखा व्यवहार करने से हो सकता है कि मार्ग-दर्शक हमें गुस्से में ऐसे मार्ग की ओर मोड़ दे जो हमारे गण्तव्य स्थान से विप्रीत दिशा कि ओर ले जाता है, और हमें कई घटे गवाने पड़ें। ऐसे में हमारे व्यवहार का नुक्सान हमें ही उठाना पड़े । ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिसमें हम अपने अहम की तुष्टि हेतु अनाकर्षक व्यवहार कर बैठते हैं, जिससे हमें ही नुक्सान झेलना पड़ता है।
 
भगवान ने अपनी विभिन्न लीलायों के माध्यम से हमे शिक्षा दी कि हमें अपना जीवन कैसे जीना चाहिये व हमें कैसे सुखी रहना चाहिये। ऐसी ही अनेक लीलायों में से एक लीला के माध्यम से उन्होंने हमें समझाया कि विनम्रता से क्या कुछ नहीं हो सकता।
 
जब कुरुक्षेत्र के युद्ध की ठन गयी  तो दुर्योधन श्रीकृष्ण से सहायता माँगने के लिये प्रातः ही द्वारिका गये क्योंकि श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा ही कहा था। वे सीधा श्रीकृष्ण के शयनकक्ष में गये। श्रीकृष्ण शयन कर रहे थे। दुर्योधन उनके सिर कि ओर एक सिंहासन पर बैठ गये। तभी अर्जुन भी वहाँ पर आ गये। वे श्रीकृष्ण के चरणों कि ओर बैठ गये। श्रीकृष्ण ने नयन खोले और अर्जुन की ओर देखा व पूछा, 'अर्जुन तुम कब आये?"
 
तभी दुर्योधन बोले, 'अर्जुन से पहले मैं आया हूँ । मैं आपसे युद्ध के लिये सहायता माँगने आया हूँ । आपको युद्ध में हमारी सहायता करनी चाहिये ।'
 
अर्जुन ने भी हाथ जोड़ कर कहा, 'मैं भी इसी निमित्त प्रार्थना करने आया हूँ ।'
 
श्रीकृष्ण उठ बैठे व दुर्योधन को बोले, 'मैंने पहले ही बोल दिया था कि जिसको मैं उठते ही पहले देखूँगा, उसे ही पहले माँगने का अवसर मिलेगा। आप यहाँ पहले आये हैं, परन्तु मैंने अर्जुन को पहले देखा है। फिर वो आपका अनुज भी है। अतः चुनाव का प्रथम अवसर उसे मिलना चाहिये। एक ओर मेरी अक्षौहिणी नारायणी सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं अकेला रहूँगा किन्तु युद्ध में मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा ।'
 
अर्जुन तुरुन्त बोले, 'मुझे केवल आप ही चाहिये।'
 
दुर्योधन मन ही मन अति प्रसन्न हुया और उसने श्रीकृष्ण से पुनः प्रश्न किया, 'आप तो शस्त्र लेकर युद्ध नहीं करेंगे?'

 
श्रीकृष्ण ने कहा, 'इस युद्ध में शस्त्र न उठाने की मेरी प्रतिज्ञा है।'
 
हस्तिनापुर में मित्रों ने दुर्योधन की सफलता का स्वागत किया। केवल महात्मा भीष्म पितामह ने सब सुनकर कहा,' नारायण रहित नारायणी सेना?' और मौन हो गये।
 
इतिहास साक्षी है कि अर्जुन की इस विनम्रता ने उनको और उनके परिवार को क्या फल दिया।
 
आजकल के माता-पिता आये दिन इस समस्या से जुझते हैं कि उनकी संतान विनम्र नहीं है। भगवद भजन एक अदभुत मार्ग है। इसमें कोई संशय नहीं कि जो जितना उच्च कोटि का भक्त होगा वह उतना ही विनम्र होगा। किन्तु भजन मार्ग ऐसा है कि आप जितनी साधनायें करते चले जायेंगे, उतना विनम्र यह आपको बनाता चला जायेगा। इसके लिये अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।
 
हमें चाहिये कि हम अपने बड़ों का सम्मान करें, उनसे हम मीठा बोलें, और स्वयं भगवान के मन्दिर में जाकर प्रणाम करें । और सन्तान को भी ऐसी आदतें डालें। साधारणतयः यही नियम है कि बच्चे जैसा बड़ों को करते हुये देखते हैं, वे भी वैसा ही करते हैं। बच्चों के अन्दर जितनी बड़ों की सेवा करने के,  भगवान की भक्ति करने के संस्कार बड़ते चले जायेंगे, उनकी सोच उतनी विशाल होती चली जायेगी। संसार का यही नियम है, वही व्यक्ति महान होता है, जिसकी विचार-धारा महान होती है। पेड़ पर जितने अधिक फल लगते हैं, यह उतना ही झुका हुया दिखायी देता है। इसी प्रकार आप अपनी सन्तान में जितने सद्गुण प्रदान करेंगे, उतनी उनमें विनम्रता आयेगी।
 
(द्वारा : श्री भक्ति विचार विष्णु महाराज)

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