प्रश्न: आदरणीय महाराज
जी,
आपकी कृपा प्रार्थना हेतु मेरा दंडवत प्रणाम |.
हम किसी शिष्य को कैसे उपयुक्त मान लें अगर वो अपने पूर्व आचार्यों की इच्छा
का अनुसरण या पालन नहीं कर रहा है। हम इसमे कैसे सामजस्य बिठाएं ? अगर कोई आचार्य
समिति है, पर वो अंतिम इच्छा का अनुसरण या आज्ञा पालन नहीं कर रही ।
उत्तर:
प्रिय शिष्य
हरे कृष्ण , मेरा आशीर्वाद ग्रहण करो|
कभी कभी भक्त को स्थानीय लोगों की सोच मे परिवर्तन के कारण प्रचार की
प्रक्रिया को बदलना पड़ सकता है, पर उद्देश्य वही रहता है । दोनो ही भगवान की सेवा
कर रहें है , इसलिए उपरी तौर से जो अंतर है वो वास्तव में अंतर नहीं है क्योंकि
प्रक्रिया मे अंतर है पर उद्देश्य मे नहीं ।
श्रील गौरकिशोर बाबा जी महाराज जी ने श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती 'प्रभुपाद'
जी को कोलकाता जाने के लिए मना किया था । पर श्रील भक्ति
सिद्धांत सरस्वती 'प्रभुपाद' जी ने कोलकाता
मे रहते हुए कहा मैं कभी भी कोलकाता नहीं गया मैं हमेशा अपने गुरु जी के पाद्द -
पद्मो मे हूँ ।
क्या यह संभव है ?
हाँ
क्योंकि उनकी निष्ठा के कारण कोलकाता की परिस्थितियां उनको छू भी नहीं सकी
जैसे की पानी कभी भी कमल की पतियाँ को छू भी नहीं सकता ।
इसमें कोई संदेह नहीं है ।
तुम इस पर विश्वास कर भी सकते हो और नहीं भी ,
परन्तु अगर विशवास करने का कारण है तो तुम क्यों नहीं करोगे ? तुम्हे बस यह देखना
होगा कि वो शिक्षाएं वास्तव मे शिक्षाएं है भी
या नहीं ।
उदहारण के लिए : अर्जुन और भीष्मदेव दोनों ही श्रीकृष्ण की सेवा करने की कोशिश
कर रहें है परन्तु दोनों युद्ध कर रहे है । दोनों विपरीत पक्षों मे खड़े हैं ।
यहाँ कोई अंतर है ?
नहीं ।
यदि आप एक फुटबाल खिलाड़ी हैं, तुम एक तरफ हो , तुमारा भाई दूसरी तरफ है । तुम
गोल करने की कोशिश कर रहे हो वो भी वही कर रहा है तुम दोनों मे कोई अंतर नहीं है
वास्तव मे तुम दोनों एक ही
कार्य कर रहे हो ।
तो , अब मुख्य विषय की तरफ वापिस आते है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता अगर कोई
भगवान की सेवा करने की कोशिश कर रहा हैं और प्रचार के लिए कोई भी प्रक्रिया अपनाता
है पर उसके उद्देश्य में कोई अंतर नहीं है ।
तुम इस बात को कैसे समझ पाओगे ?
वैष्णव की कृपा प्रार्थना से और उनके आशीर्वाद से समझ सकते हो । अगर तुम अपनी
बुद्धि से समझने की कोशिश करोगे तो तुमारा अपराध हो जायेगा ।
अगर तुम इसे नहीं समझोगे तो तुम भगवान् श्रीकृष्ण एवं चैतन्य देव की शिक्षाओं
का पालन या अनुसरण नहीं कर पाओगे, आप को भगवान् रामचंद्र के शरणागत होना पड़ेगा ,
तभी तुम समझ सकते हो ।
अगर तुम श्रीकृष्ण एवं उनके भक्तो की शिक्षाओं
का अनुसरण करना चाहते हो तुम्हे यह समझना पड़ेगा , तुम किसी वरिष्ट वैष्णव के साथ इस
बारे मे बात कर सकते हो । शुद्ध वैष्णव के संग से ही आप इसे आसानी से समझ सकते हो
।
पूछना अच्छी बात है , पर उसमें ईमानदारी होनी
चाहिए । इस भावना से हमेशा स्वागतम है पर चुनौतीपूर्ण भाव से नहीं ।
तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रशनेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिन: ||
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास
करो । उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो । स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हे
ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है ।
उदाहरण के लिए अगर आपका स्वास्थ्य अच्छा
नहीं है तो आप विटामिन की मदद लेते है और इन विटामिनो के बिना आप स्वास्थ्य लाभ
नहीं कर सकते । उसी प्रकार , साधु की मदद के बिना तुम शास्त्रों की शिक्षाओं को
नहीं समझ सकते ।
अगर तुम निष्किंचन वैष्णवों की सेवा नहीं कर
रहे हो और तुम्हारे ऊपर उनका आशीर्वाद नहीं है तो तुमारा मन श्री हरि के पाद्पद्मों
मे नहीं लग सकता । एकमात्र शुद्व भक्त की कृपा से तुम शास्त्रों का अभिप्राय समझ
सकते हो ।
तुम सिर्फ शुद्ध वैष्णवों के अनुगत्य से शास्त्रों के अभिप्राय को समझ सकते हो
। शुद्ध वैष्णव शास्त्रों की आज्ञा को पालन करने के लिए कहता है । भक्त की एकमात्र
इच्छा भगवान् की सेवा होती है । भगवान की सेवा किये बिना ना तो तुम शांति प्राप्त कर सकते हो और न ही अपनी
इच्छाओं को जीत सकते हो । जब तुम भक्ति मे प्रतिष्ठित होते हो तो भगवान की सेवा छोड़
कर और कोई आकांक्षा नहीं रहती ।
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