रविवार, 22 जुलाई 2012

मकर संक्रान्ति

इस दिन महाप्रभु प्रात: शीघ्र उठकर तैरते हुए गंगा पार  करके काटोया पहुंचे । उस समय सर्दी का मौसम था, पर महाप्रभु को इस बात की कोई परवाह नहीं थी क्योंकि उनके हृदय और शारीर में तो  दिव्योंन्माद था।  एक ओर श्री कृष्ण से वियोग का भाव और दूसरी तरफ सारे विश्व मे कृष्ण भक्ति के प्रचार का उद्देश्य ।  इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे गोलोक धाम से नवद्वीप आये | इसके अतिरिक्त उनका कोई उद्देश्य नहीं था । वह एकमात्र कृष्ण विप्रलंभ भाव मे चल रहे थे । कृष्ण प्रेम मे बाकि सब कुछ शून्य प्रतीत होता था ।           
 
हम अपने शाश्वत धन के लिए क्या एकत्रित कर रहें है ? सर्वोच्च कल्याण यही है सभी जीवों को उनके घर वापिस ले जाया जाए । महाप्रभु के हृदय मे यही इच्छा जाग्रत हुई कि  पथभ्रष्ट जीवों को उनके घर वापिस लेकर जाया जाए । मैं इसीलिए तो आया हूँ | यह सब जंगल के जानवरों की तरह  घूम रहें है बिना यह जाने उनके लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , हमेशा एक  दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहें है ।राष्ट्रहित के लिए बहुत जोश पैदा किया जाता है , बहुत सारे परमाणु बम हैं, और बहुत सारे सिपाही अपने प्राण देने के लिए तैयार है । कितनी नश्वर प्रसिद्धि है ? यह तुच्छ है, यह कुछ नहीं है । वे एक दूसरे को  काट रहे हैं । वे कहते कि वे सभ्य है । वे जंगल के जानवरों की तरह एक दूसरे को काट रहें है जैसे की जंगल के जानवर दूसरे जानवरों की जिन्दगी की कीमत पर रहने की कोशिश करते है वही कार्य मनुष्य अधिक कुशलता से कर रहा है  । राष्ट्र के नाम पर झगड़ रहें है । यह क्या है ? सभ्तया नें अपने अर्थ खो दिए हैं । सभ्तया का अर्थ हैं भद्रता । पर क्या यह भद्रता है ? वे सब इस बात इस बात पर गर्विंत हो रहे है । राष्ट्र्ता के नाम पर जंगली जीवन जीना क्या उचित है ? यह मात्र मूर्खता है ।
 
आधा सच झूठ से भी बद्तर हैं । लोगों को  पथभ्रष्ट  करना और भी खतरनाक है।
अगर हम धर्म के नाम पर नास्तिकता फैला  रहे है तो वो एक साधारण  नास्तिक की उपेक्षा अधिक खतरनाक है । हम सभ्यता के   नाम पर ऐसे कर रहे हैं की वह जंगल के जानवरों को भी शर्मसार कर दे । मात्र भोजन वितरित करना , कपड़े  देना , तथाकथित शिक्षा देना अच्छी बात है ? परन्तु  इससे कई अधिक महत्वपूर्ण है उनको उनके घर वापिस ले जाना । 
 
घर मे जो आराम होता है बड़ा प्रिय होता है । घर का अर्थ है जहाँ आपके माता-पिता और कई प्रियजन रहते हैं, वे अपने बच्चे की वास्तविक आवश्यकता को समझते है । बच्चे को पता हो या नहीं पर उसके प्रियजन को पता है उसका वास्तविक कल्याण कहाँ पर है ।
 

अनजाने मे एक ऐसा वातावरण आयेगा जो हमें हमारी वास्तविक मदद , हमें अपने घर वापिस अर्थात भगवान के पास जाने मे हमारी मदद करेगा । हम सब गलियों के घुमक्कड़ है । यह हमें इकट्ठा करेगा और अपने घर ले जायेगा । यही महाप्रभु का उद्देश्य है ।
 
किसी भी कीमत पर उन्हें अपने घर वापिस लेकर जाना है | बच्चा शायद नहीं जानता है , शायद वह पागल है । वह कभी इधर तो कभी उधर भागता है पर घर की तरफ नहीं जाता, यही समस्या है । यह जिम्मेदारी पथ प्रदर्शक की है | पथ प्रदर्शक की क्षमता के अनुसार ही वास्तविक प्रभाव उसकी मदद करता है । यह विशेष क्षमता है और भगवान द्वारा नियुक्त किये जाता है । यह दोनों मिलकर ही आचार्य में वशिष्ट विशेषता बनाता है ।
 
पदवी एक अलग बात है और व्यक्ति दूसरी बात । जब आन्तरिक क्षमता और भगवान  द्वारा संचारित शक्ति  होती है दोनों का संयोजन प्रभावी होता है और वांछित परिणाम देता है । महाप्रभु स्वरूपदामोदर को रूप गोस्वामी की सिफारिश करते है कि वह भक्ति शास्त्रों में  बहुत योग्य व्यक्ति है । मैने उसमें अपनी शक्ति संचारित की है | महाप्रभु सवरूप दामोदर को अनुरोध करते है तुमनें जो प्राप्त किया है, वह उसे दे दो । वह बहुत योग्य व्यक्ति है । वह इसे संभाल सकता है और इसका वितरण कर सकता है ।
 
संन्यास लेने से एक दिन पहले भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने परिवार के साथ थे ।  उस दोपहर महाप्रभु अपने मित्रो से मिलते है और उन्हें कृष्ण भजन करने के लिए कहते है । वह उन्हे कहते है की अपनी हर क्रिया सोते समय, खाते समय यहाँ तक कोई भी शारीरिक कार्य करते समय कृष्ण को अपने साथ रखना और सब कुछ कृष्ण भावनामृत हो कर करना ।
 
तब मध्य रात्रि के अंतिम प्रहर मे महाप्रभु नवद्वीप छोड़ देते है । पांच वर्षो के पश्चात् महाप्रभु घर वापिस आते है पर घर के अन्दर नहीं जाते सिर्फ एक दृष्टि डालते है । वहां पर मैले वस्त्र पहने विष्णुप्रिया उनके दर्शन करती है । महाप्रभु विष्णुप्रिया को अपनी चरण पादुका देकर उसे कहते इस से अपनी विरह वेदना दूर करो । आज भी महाप्रभु जी ने सन्यास के पांच वर्षो के पश्चात जो चरण पादुका विष्णुप्रिया जी को दिए दिए थे उसके दर्शन होते हैं ।
 
उसके बाद महाप्रभु रामकेली के मार्ग से वृन्दावन जाते है और श्री रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी पर कृपा करते है । फिर महाप्रभु शांतिपुर वापिस आते है और पुरी जाते है । फिर बनारस से होते हुए वृन्दावन जाते है ।
 
पौष के महीने मे बहुत ठण्ड होती है । महाप्रभु पौष के सारे महीने मे वृन्दावन मे श्री कृष्ण की लीला स्थलियों का दर्शन करते है । माघ के महीने मे महाप्रभु प्रयाग आते है वे वहां  श्री रूप गोस्वामी जी को मिलते है | वह मात्र दो सप्ताह वहां रुकते हैं और श्री रूप गोस्वामी जी को राग भक्ति का उपदेश देते है और उन्हें वृन्दावन जाने के लिए कहा और कुछ सेवा भी सौंपी ।
 
वहां से महाप्रभु जी बनारस गए और सनातन गोस्वामी जी से मिले | महाप्रभु जी ने सनातन गोस्वामी जी को विस्तृत रूप से भक्ति के विषय मे शिक्षा दी । 
 
बनारस मायावादियों की राजधानी थी । महाप्रभु जी उनके प्रमुख से मिले और उसे प्रवर्तित किया ।
 
महाप्रभु जी 24 साल तक नवद्वीप में रहे और छः  साल  उन्होंने भारत के अलग अलग स्थानों की यात्रा की । और बाकि  18 साल पुरी मे रहें । पहले 6 साल महाप्रभु जी बहुत सारे भक्तो को मिलते थे । अपने जीवन के अंतिम वर्षो मे बहुत कम भक्तो से मिलते और प्रेमा भक्ति मे पूर्णभाव में तल्लीन रहे । वह राधारानी के विभिन्न भावो का अस्वादन करते । महाप्रभु का कृष्ण वियोग मे भाव बहुत गहरा हो गया था । स्वरूप दामोदर और राय रामानंद महाप्रभु जी अति अन्तरंग थे । स्वरूप दामोदर और राय रामानंद और कुछ और भक्त हमेशा महाप्रभु के साथ रहते और महाप्रभु उनको कहते कि मुझ से अब यह विरह सहन नहीं होता । वह कभी कभी भाव विभोर होकर समुद्र में कूद जाते कभी कभी कांटेदार खेत मे कूद जाते । यह  महाप्रभु जी के अंतिम चरण मे इस लीला के बारे मे बताया गया है । 
 
गौर हरि बोल !
 
(यह प्रवचन श्रीधर गोस्वामी महाराज जी ने १४ जनवरी १९८४ को महाप्रभु के सन्यास दिवस मकर संक्रांति के अवसर पर दिया |  )

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