बात उन दिनों कि है जब हमारे परमगुरुदेव परमपूज्यपाद
नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ 108 श्रीश्रीमद भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज विष्णुपाद जी
इस धरातल पर भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु जी की वाणी के प्रचार - प्रसार में सलंग्न
थे। एक बार आप पंजाब राज्य के शहर जालन्धर में प्रचार हेतु गये। आप प्रतिदिन प्रात:
काल श्रीनोहरिया मन्दिर में भागवत शास्त्र के माध्यम से उपदेश प्रदान करते थे।
एक वृद्ध महिला जो आप के प्रवचन सुनने आती थी, ने
आपको एक प्रश्न किया। उसने पूछा कि वह पचास वर्षों से सीता-राम मन्दिर में आ रही
है, यहाँ तक कि एक दिन का भी नागा उसने नहीं किया। वह 50 वर्षों से प्रतिदिन ठाकुर
जी की आरती दर्शन, मन्दिर परिक्रमा एवं हरिनाम करतीं आ रही हैं तथा किसी के द्वारा
गीता, भागवत व रामायणादि का पाठ करने पर वे सुनती भी हैं। वे नियमित रूप से इसी
प्रकार करतीं आ रही हैं, और अब बूढ़ी हो गई हैं किन्तु उनका सीता-राम जी में बिन्दु
मात्र भी प्रेम नहीं हुया, जब्कि उसकी संसार में पुत्र-कन्या, नाती-पोतों में और भी
आसक्ति बढ़ गयी है, इसका क्या कारण है?
यदि भगवान में प्रेम ही नहीं हुया तो उस सब साधनों का
फल क्या है?
वृद्धा का प्रश्न सुन कर आप बहुत प्रसन्न हुये। आपने
उस दिन की सभ में ही वृद्ध माताजी की बात उठाते हुये कहा कि जो यहाँ पर प्रतिदिन
मन्दिर में ठाकुर जी के दर्शनों के लिये आते हैं उन सब के लिये इस विषय में सुनना
उचित है। मैं कल की सभा में ही इस प्रशन का उत्तर दूँगा।
अगले दिन प्रात: श्रील गुरुदेव जी ने वृद्ध माताजी के
प्रशन की अवतारणा करते हुये सबसे पहले उनसे यह जानना चाहा, कि क्या उन्होंने कभी
किसी दिन किसी से सीता-राम जी के स्वरूप, अपने स्वरूप, जगत के स्वरूप व सीता-राम जी
के साथ उनका क्या सम्बन्ध है -- इन सब विषयों की जिज्ञासा की है या भेड़ चाल की तरह
ही वे मन्दिर में आ रही हैं अथवा क्या कभी किसी से इन सब विषयों की जिज्ञासा करने
की आवश्यकता ही महसूस नहीं की?
क्योंकि सम्बन्ध ज्ञान के उदय हुये बिना कभी भी भगवान
में प्रीति नहीं हो सकती। सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा ही प्रीति होती है। व्यवहारिक
जगत में किसी के द्वारा परिचय पूछे जाने पर हम उसे सांसारिक परिचय ही देते हैं जैसे
अमुक मेरा पिता हैं, अमुक मेरी माता हैं, मैं अमुक का पुत्र, पति व स्त्री इत्यादि
हूँ। सांसारिक सम्बन्धों का ज्ञान रखकर ही हम मन्दिर में आते हैं, ठाकुर के दर्शन
करते हैं, हरिकथ आदि सुनते हैं व सभी कुछ करते हैं -- इन सब साधनों से भगवान में
प्रीति तो होती ही नहीं बल्कि संसार में ही आसक्ति बढ़ती है। इन सब कार्यों को पुण्य
व धर्म कहते हैं, भक्ति नहीं कहते।
अभिमान ही कर्म का प्रवर्त्क है। प्राकृत अस्मिता -
मैं संसार का हूँ, ये भावना या वृत्ति परित्यज्य है किन्तु अप्राकृत अस्मिता कि मैं
भगवान का दास हूँ, इस प्रकार की वृत्ति परित्यज्य नहीं है।
मैं संसार का हूँ -- इस ज्ञान से हम संसार के लिये,
स्त्री-पुत्र आदि के लिये कार्य करते हैं। मठ-मन्दिर में आने पर भी हम संसार के
स्वार्थों की सिद्धि के लिये ही आते हैं, भगवान के लिये नहीं आते। यह स्वभाविक ही
है कि जहाँ हमारा अभिमान होगा, जिनके लिये हम कार्य करेंगे, उनके प्रति ही हमारी
प्रीति होगी। जब मैं समझूँगा कि मैं भगवान का हूँ, भगवान से ही सब प्रकार से मेरा
नित्य सम्बन्ध है, अर्थात अप्राकृत शुद्ध-अस्मिता जब प्रकट होगी, तब भगवद-प्राप्ति
ही मेरी सबसे बड़ी आवश्यकता है, ऐसा ज्ञान हो जायेगा तथा मैं स्वभाविक ही भगवान के
लिये कार्य करूँगा। भगवान में स्वार्थबोध अर्थात भगवान ही हमारी परम आवश्यकता हैं
ऐसा ज्ञान होने पर मैं अपने को एवं अपना कह कर जो कुछ है भगवान को अर्पित कर
पाऊँगा। इस प्रकार की अवस्था में ही भगवान में प्रीति और प्रेम होना सम्भव है।
सद्गुरु या शुद्ध भक्त की कृपा से सम्बन्ध उदय होता है। सम्बन्ध ज्ञान से पहले
भगवान की आराधना सम्भव ही नहीं होती। हम लोग सम्बन्ध ज्ञान की प्राप्ति के लुये
अधिक ध्यान नहीं देते, इसलिये उपयुक्त फल भी प्राप्त नहीं कर पाते। सम्बन्ध ज्ञान
के पश्चात अभिधेय अर्थात साधन तथा साधन के द्वारा प्राप्त वस्तु को प्रयोजन कहते
हैं। सनातन धर्म के शास्त्रों में तथा सभी महानुभावों के उपदेशों में तीन विषय ही
विषेश रूप से आलोचित हुये हैं -- सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन । परमार्थिक जीवन की
प्रथम सीढ़ी सम्बन्ध - ज्ञान ही है।
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