शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

भूत कैसे कैसे?

कुछ दिन पहले मैं एक सज्जन को मिलने गया। जब मैं उनके घर पहुँचा तो पता लगा कि वे चिकित्सक के समीप गये हैं। कुछ समय उपरान्त वे आ गये। उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि वे अपने एक मित्र व उनके पुत्र के साथ डाक्टर के पास गये थे जोकि मनोविज्ञान का चिकित्सक था। उन्होंने बताया कि उनके मित्र के पुत्र को कोई मनोवैज्ञानिक रोग हो गया है। वह कभी कभी अपने को कुछ और ही बताता हय व अद्भुत बातें करता है। चिकित्सक के अनुसार अनियमित निद्रा के कारण ऐसा हो गया है, व अब वह उस बालक को औषधि दे रहा है।
कुछ समय उपरान्त वे स्वयं ही बोल पड़े कि शायद इसी रोग को भूतिया रोग कहते हैं। जब मैनें उसका उत्तर नहीं दिया तो उन्होंने पूछा  कि आपका क्या विचार है?
मैनें कहा, ' आपको उत्तर रुचेगा नहीं।'
जब उन्होंने कहा कि नहीं, नहीं, कृपया बतायें, तो
मैनें उन्हें बताया कि भगवान चैतन्य महाप्रभु के भक्त थे श्रीजगदानन्द पण्डित ।
श्रीजगदानन्द पण्डित ने एक ग्रन्थ लिखा है, 'श्रीप्रेम विवर्त' । उन्होंने उसमें लिखा है कि मानव हर पल एक भूत कि चपेट में रहता है। वह भूत है - माया का भूत, संसारिक झूठे अहंकार का भूत,'मैं - मैं' का भूत्। जब भगवान चैतन्य महाप्रभु बनारस में श्रील सनातन गोस्वामी जी को मिले थे तो श्रीसनातन गोस्वामी जी ने उनसे बहुत से प्रश्न पूछे थे। उन प्रश्नों में एक प्रश्न था, 'मैं कौन हूँ?' 
साधारणत: कोई भी व्यक्ति इस प्रश्न का सहज ही उत्तर देगा। श्रील सनातन गोस्वामी भि इसका उत्तर जानते थे क्योंकि वे वेटिकन भाषायों के विद्वान थे व बंगाल राज्य के प्रधान - मन्त्री थे। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति अगर प्रश्न पूछ रहा है तो इसका अर्थ है कि इसका उत्तर वह नहीं है जो कि हमें पता है।
हमें कोई पूछेगा तो हम बतायेंगे कि हमारा अमुक नाम है, हमारा अमुक पता है, इत्यादि ।
यह भूत ही तो है जो हम पर चढ़ा हुया है व हमसे अपनी गल्त पहचान बुलवा रहा है, ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से उनके मित्र का पुत्र अपनी कोई और पहचान बताता है।
भगवान चैतन्य महाप्रभु ने श्रील सनातन गोस्वामी जी को बताया है कि जीव वास्तव में श्रीकृष्ण का दास है। और जीव का वास्तविक घर तो भगवान का धाम है। यह धरातल तो रैन-बसेरा की तरह है जहाँ पर कुछ समय के लिये जीव ठहरता है।
श्रीजगदानन्द जी आगे लिखते हैं कि किन्तु इस माया के भूत के कारण हम अपनी पहचान गलत बताते हैं, व इसी भ्रम में हम भगवान का दासत्व ना करके, अपने परिवार का, अपने स्वार्थ क, अपने मन का, हमें भौतिक धन देने वाले जीव का, इत्यादि का दासत्व करते हैं।
इसी भूत रूपी भ्रम के कारण हम कष्टों से घिरे रहते हैं।


इसलिये केवल उस बालक को ही नहीं, हमें भी चिकित्सक की आवश्यकता है। बाहरी दृष्टि से भले ही हम स्वस्थ दिख रहे हैं परन्तु हमे माया के भूत ने घेरा हुया है। जो अपना नहीं, उसको हम अपना बताते हैं। यह घर, यह परिवार, यह धन, इत्यादि सब यहीं रह जाना है। अगर यह हमारा होता तो हमारे साथ ही जाता। हम भ्रम में जी कर इनकी पालना कर रहे हैं, जबकि हमें पालना करनी चाहिये अपने वास्त्विक ध्येय की जो कि है भगवान की भक्ति।
धन कमाना, परिवार करना अनुचित नहीं है, परन्तु उसमें बहुत अधिक आसक्त होना अनुचित है।
तो क्यों ना दुनियावी कार्यों के साथ साथ हम माया के इस भूत से दूर अपनी असली पहचान, अपने वास्तविक सम्बन्धी भगवान से अपने सम्बन्ध को परिपक्व करें व अपना परलोक भी सुधारें व इहलोक भी।

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