गुरुवार, 21 जून 2012

वैष्णवता तथा अहिंसा

 
आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अहिंसक हो , महान आचार्यो के पदचिन्हों का अनुगमन करे , भगवान कि लीलायों के अमृत का सदैव स्मरण करे , बिना किसी भौतिक कामना के यम- नियमों का पालन करे और ऐसा करते हुए दूसरों की  निंदा न करे | भक्त को अत्यंत सादा जीवन बिताना चाहिए और विरोधी तत्वों से विचलित नहीं होना चाहिए | उसे चाहिए कि वह उन्हें सहन करना सीखे | 

 
तात्पर्य: भक्त वास्तव में साधु पुरष होते हैं | साधु अथवा भक्त का पहला गुण अहिंसा है | जो लोग भक्ति पथ में चलने या भगवान् के धाम वापस जाने के इच्छुक है उन्हें पहले अहिंसा का अभ्यास करना चाहिए | साधु को तितिक्षव: कारूणिका: (भागवत ३.२५.२१ ) कहा गया है | भक्त को सहिष्णु एवं अन्यों के प्रति अत्यंत दयालु होना चाहिए। उदाहरणार्थ यदि उसे कोई चोट लगे तो उसे सह लेना चाहिए , किन्तु यदि किसी अन्य को चोट लगे तो भक्त को यह सहन नहीं होता है । सारा संसार हिंसा से पूर्ण है , अत: भक्त का पहला कार्य है है कि वह  इस हिंसा को रोके जिसमें पशुओं का वध भी सम्मिलित है |     
         
 
भक्त न केवल मानव समाज का , अपितु समस्त जीवों का मित्र होता है , क्योंकि वह समस्त जीवात्माओं को भगवान् की  संतानों के रूप में देखता है | वह  केवल अपने को ईश्वर  का पुत्र बताकर तथा अन्यों को यह समझ कर कि उनमें आत्मा नहीं है, मारे जाने नहीं देता | भगवान का भक्त कभी भी ऐसी विचारधारा का पोषक नहीं होता | सुह्वद्: सर्वदेहिनाम  - असली भक्त समस्त जीवात्माओं का मित्र होता है | भगवद गीता में श्री कृष्ण ने अपने को जीवों  की समस्त योनियों का पिता कहा है | फलत: श्री कृष्ण का भक्त सबों का मित्र होता है | यही  अहिंसा कहलाती है |  
 
 
इस अहिंसा का अभ्यास तभी संभव है जब हम महान आचार्यो के पदचिन्हों पर चलें | अत: वैष्णव - दर्शन के अनुसार हमें चारों सम्प्रदायों के महान आचार्यों का अनुसरण करना होता है |
 
 

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