आध्यात्मिक उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह अहिंसक
हो , महान आचार्यो के पदचिन्हों का अनुगमन करे , भगवान कि लीलायों के अमृत का सदैव
स्मरण करे , बिना किसी भौतिक कामना के यम- नियमों का पालन करे और ऐसा करते हुए
दूसरों की निंदा न करे | भक्त को अत्यंत सादा जीवन बिताना चाहिए और विरोधी तत्वों
से विचलित नहीं होना चाहिए | उसे चाहिए कि वह उन्हें सहन करना सीखे |
तात्पर्य: भक्त वास्तव में साधु पुरष होते
हैं | साधु अथवा भक्त का पहला गुण अहिंसा है | जो लोग भक्ति पथ में चलने या भगवान्
के धाम वापस जाने के इच्छुक है उन्हें पहले अहिंसा का अभ्यास करना चाहिए | साधु को
तितिक्षव: कारूणिका: (भागवत ३.२५.२१ ) कहा गया है | भक्त को सहिष्णु एवं अन्यों के
प्रति अत्यंत दयालु होना चाहिए। उदाहरणार्थ
यदि उसे कोई चोट लगे तो उसे सह लेना चाहिए , किन्तु यदि किसी अन्य को चोट लगे तो
भक्त को यह सहन नहीं होता है । सारा संसार हिंसा से पूर्ण है , अत: भक्त का पहला
कार्य है है कि वह इस हिंसा को रोके जिसमें पशुओं का वध भी सम्मिलित है |
भक्त न
केवल मानव समाज का , अपितु समस्त जीवों का मित्र होता है , क्योंकि वह समस्त
जीवात्माओं को भगवान् की संतानों के रूप में देखता है | वह केवल अपने को ईश्वर
का पुत्र बताकर तथा अन्यों को यह समझ कर कि उनमें आत्मा नहीं है, मारे जाने नहीं
देता | भगवान का भक्त कभी भी ऐसी विचारधारा का पोषक नहीं होता | सुह्वद्:
सर्वदेहिनाम - असली भक्त समस्त जीवात्माओं
का मित्र होता है | भगवद गीता में श्री कृष्ण ने अपने को जीवों की समस्त योनियों
का पिता कहा है | फलत: श्री कृष्ण का भक्त सबों का मित्र होता है | यही अहिंसा
कहलाती है |
इस अहिंसा का अभ्यास तभी संभव
है जब हम महान आचार्यो के पदचिन्हों पर चलें | अत: वैष्णव - दर्शन के अनुसार हमें
चारों सम्प्रदायों के महान आचार्यों का अनुसरण करना होता है
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