शुक्रवार, 1 जून 2012

मैं किस प्रकार आपका आभार व्यक्त करूँ ?

सन १९८८ में व्यास पूजा महोत्सव के उपलक्ष्य में श्रील गौर गोविन्द स्वामी जी द्वारा परम्पूज्यपाद नित्यलीलाप्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद्भक्ति वेदान्त स्वामी महाराज जी  के चरणकमलों में पुष्पांजलि |

मेरे प्रिय गुरुदेव, आपके चरणों में मेरा अनंतकोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम |
 
जब भी मैं आपका गुणगान करने की चेष्टा करता हूँ और आपके चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ  तो अपने आप को अयोग्य पाता हूँ | लगभग १४ वर्ष पूर्व आपने मुझे इस भौतिक जगत की अंधकारपूर्ण जगह से निकला और अपने दिव्य उपदेश व् कृष्ण भावनामृत के उपदेश से मेरे ह्रदय में कृष्ण भक्तिरूपी बीज आरोपित किया | मैं किस प्रकार आपका आभार व्यक्त करूँ ?
 
सन १९७७ में आप अहैतुकी कृपा करने के लिए उड़ीसा, भुवनेश्वर आए और १६ दिन तक मुझ अधम द्वारा निर्मित एक मिट्टी से बनी झोंपड़ी में बिना कोई असुविधा प्रकट किए दीनतापूर्वक रहे | उस समय यह स्थान शहर से दूर था और यहाँ आधुनिक सुख-सुविधाओं का अभाव था किन्तु फिर भी आप स्वेच्छा से यहाँ रहे और आपने बोला, "जो कृष्ण ने व्यवस्था की है वो मेरे मंगल के लिए है |" मैं state guesthouse में आपके रहने की व्यवस्था करने के लिए जा रहा था किन्तु आपने वहां ठहरने से मना कर दिया |

आप इतने दयालु हैं, आपने अपने आचरण द्वारा बहुत अच्छे ढंग से हमें शिक्षा दी, यही वास्तविक गुरु-वैष्णवों का शिक्षा देने का तरीका है | आपने अपने आचरण द्वारा हमें सिखाया की सभी परिस्थितिओं को भगवान कृष्ण की इच्छा के रूप में स्वीकार करना चाहिए | उस समय सभी प्रतिकूल परिस्थितिआं होते हुए भी आपने उदार भाव से इस मंदिर की नित्यानंद प्रभु की शुभ आविर्भाव तिथि पर नींव रखी और उस समय आपने धीरे से मेरे कान में कहा, "गौर गोविन्द, यह मंदिर  विश्व के उत्तम मंदिरों में से एक होगा, तुम यहाँ रहो और इस परियोजना को पूर्ण करो, यहाँ रहकर मेरे ग्रंथों का उड़ीया भाषा में अनुवाद करो, प्रकाशन करो और प्रचार करो...." |

आपने मुझे बहुत उपदेश दिए किन्तु आपके यह दिव्य शब्द अभी भी मेरे कानों में गुंजायमान हैं | आपके यह दिव्य शब्द मेरी सबसे अधिक बहुमूल्य संपत्ति हैं और इसी के बल से मैं आज तक अनेकों रुकावटों, विपदाओं को सहन करते हुए भी आपकी इच्छापूर्ति के लिए यहाँ रह रहा हूँ | कृपया आप मुझे इन विपदाओं को सहन करने की शक्ति दें, मैं तो अधम पापी जीव हूँ जो आपकी अहैतुकी कृपा चाहता है |

योग्यता विचारे किछु नाहि मोर, तोमार करुणा सार 
 
आज लगभग ११ साल बीत गए जब आपने इस मंदिर की नींव रखी थी किन्तु आज भी यह निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हों पाया | यह मेरे लिए बहुत बड़ा आघात है क्योंकि मैं आपकी प्रसन्नता के लिए आपकी इस इच्छा को पूर्ण न कर सका | आपके इस जगत से अंतर्धान के बाद मैं विरह की पीड़ा का अनुभव कर रहा हूँ और अपने आप को कलि के प्रभाव से दुर्बल जान रहा हूँ |
 
कृपया आप अपने इस अयोग्य सेवक पर अहैतुकी कृपा करें क्योंकि आपकी दया ही मेरे लिए बल है | यदि मैं आपकी कृपा के बल से वंचित हों जाऊंगा तो मैं इस भवसागर की बाधाओं को कैसे पार कर पाऊंगा |
यही मेरी प्रार्थना है: कृपया मुझे अपने नित्य सेवक के रूप में ग्रहण कर मुझ पर कृपा कीजिए, मैं आपका नित्य सेवक हूँ , आप हमेशा मुझ पर शासन कीजिए जिससे मैं आपकी सेवा कर सकूँ अन्यथा यह संभव नहीं है |
 
यदि कोई गुरु-वैष्णव की सेवा करना चाहता है तो उसके लिए गुरु-वैष्णवों की कृपा अति आवश्यक है | श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने कहा,
 
आमि त दुर्भाग अति वैष्णव न चिन
मोरे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि
 
"मैं तो अति दुर्भागा हूँ, वैष्णवों को नहीं पहचान सकता | कृपया मुझ पर कृपा कीजिए क्योंकि आप तो वैष्णव हैं |"

श्रील नरोत्तम दास ठाकुर जी ने अपने दिव्य शब्दों में प्रार्थना की,
 
कि रूपे पाइव सेवा मुई दुराचार |
श्रीगुरु-विष्णवे रति ना हैल आमार ||
अशेष मायाते मन मगन हइल |
वैष्णवेते लेश मात्र रति ना जन्मिल ||
विषये भुलिया अन्ध हैनु दिवानिशि |
गले फांस दिते फिरे माया से पिशाची ||
इहारे करिया जय छाडान ना याय |
साधुकृपा बिना आर नाहिक उपाय ||
अदोषदरशी प्रभो पतित उद्धार |
एइबार नरोत्तमे करह निस्तार ||
 
"मैं दुराचारी भला कैसे आपकी सेवा प्राप्त कर सकता हूँ ? श्रीगुरुदेव व् वैष्णवों में मेरी प्रीती नहीं हुई | अशेष माया में मेरा मन मग्न हों गया है | वैष्णवों में लेशमात्र भी अनुराग नहीं हुआ | मैं दिन-रात विषय भोगों में सब  कुछ भूल गया कर अँधा हुआ पड़ा हूँ और यह मायारूप पिशाची मेरे गले में फांसी का फंदा डालने के लिए दोल रही है | मैं इस माया को जय करके इससे छुटकारा नहीं प् सकता, साधु की कृपा के बिना और कोई उपाय नहीं, इससे बचने का | श्री नरोत्तम ठाकुर जी कहते हैं कि हे अदोश्दर्शी प्रभो ! आप ही इस पतित का उद्धार कीजिए और इसी जन्म में मेरा निस्तार कर दीजिये |"  

आपका  नित्य अयोग्य सेवक,
गौर गोविन्द स्वामी |

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