रविवार, 12 फ़रवरी 2012

एकलव्य और अर्जुन

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद
द्वारा: श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद

कई लोग एकलव्य की 'गुरु-भक्ति' को आदर्श मानते हैं किन्तु इस विषय के सम्बन्ध में एक विचित्र बात ध्यान देने योग्य है |

एकलव्य
       राजा हिरण्यधनु के पुत्र का नाम एकलव्य था और वह चण्डाल जाति से था | अस्त्र-विद्या सीखने के लिए राजकुमार एकलव्य द्रोणाचार्य के पास पहुंचे किन्तु एकलव्य की निम्न वर्ग की मानसिकता और निम्न जाति का होने के कारण आचार्य ने उसे धनुर्विद्या की शिक्षा देने से मना कर दिया | एकलव्य अस्त्रविद्या सीखने का दृढ संकल्प कर चुका था और इसी उद्देश्य से वह जंगल में चला गया और वहां जाकर उसने मिट्टी से द्रोणाचार्य की  मूर्ति निर्माण करी और इस प्रकार कृत्रिम गुरु के सामने लगातार अभ्यास करते हुए वह अस्त्रविद्या में निपुण हो गया |


       अर्जुन द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य थे और द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा था की उनके सभी शिष्यों में से कभी भी कोई धनुर्विद्या में अर्जुन से उत्तम न होगा |

      एक दिन द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों को राज्य के बाहर जंगल में शिकार के लिए जाने का आदेश दिया | जब वे जंगल के रास्ते से गुज़र रहे थे तभी उन्होंने एक कुत्ते को देखा जिसके मुंह को सात तीरों से अवरुद्ध किया हुआ था और यह देख कर वे आश्चर्यचकित हो गए और सोचने लगे कि जिस किसी ने इस प्रकार से बाणों को छोड़ा है वह निश्चित ही पांडवों से कई अधिक निपुण होगा | ऐसा सोचकर वे उस व्यक्ति की खोज में निकले और फिर उन्हें पता चला की वह व्यक्ति कोई और नहीं राजा हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य है जिसने अपनी अस्त्रविद्या का परीक्षण उस कुत्ते के मुंह पर किया था |

       पांडव राज्य में लौटे और उन्होंने इस विचित्र घटना का वृतांत द्रोणाचार्य को सुनाया | अर्जुन ने विनम्रतापूर्वक द्रोणाचार्य से कहा की ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपका कोई और भी शिष्य है जो धनुर्विद्या में मुझसे अधिक निपुण है | द्रोणाचार्य इस बात को सुनकर आश्चर्यचकित हो गए और उसी समय अर्जुन के साथ जंगल में गए और वहां उन्होंने देखा की किस प्रकार धनुर्विद्या में लीन होकर एकलव्य बाणों की वर्षा कर अभ्यास कर रहा है | वे उसके पास पहुंचे  और गुरु को देखकर एकलव्य ने उनके चरणों में प्रणाम कर हाथ जोड़कर उनके शिष्य के रूप में अपना परिचय दिया | द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा, "तुम्हें गुरु-दक्षिणा देनी चाहिए" | एकलव्य ने गुरु से कहा, "कृपया मुझे बताइए - जो कुछ भी हो, मैं गुरु-दक्षिणा देने के लिए तैयार हूँ" | फिर आचार्य ने उसे अपना अंगूठा काट कर गुरु दक्षिणा के रूप में देना का आदेश दिया | एकलव्य ने किसी भी प्रकार से विरोध न कर बिना किसी संकोच के अपने गुरु के आदेश का पालन किया |

      सामान्य रूप से सबका मत है की प्रारंभ में एकलव्य के गुरु ने उसे निम्न जाति का होने क कारण अस्वीकृत कर दिया था किन्तु उसके दृढ विश्वास से उसने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाई और अडिग रहा - इस प्रकार उसकी गुरु भक्ति को आदर्श के रूप में स्थापित किया गया | दूसरी और अर्जुन एक्लव्य की गुरु में दृढ़ता और धनुर्विद्या में निपुणता से ईर्ष्या करते थे इसलिए द्रोणाचार्य ने एकलव्य की विद्या को विध्वस्त कर दिया | किन्तु न तो यह भक्तों का मत है और न ही यह एक सत्य है |

      भगवान के विषय में सब कुछ परम सत्य है, भक्ति सिद्धांतों के बारे में भी सब पूर्ण सत्य है और भक्त के सम्बन्ध में भी सब कुछ परम सत्य है | यह तीन परम सत्य हैं - भगवान, भक्ति और भक्त | भगवान का भक्त जो कुछ भी करता है वह उचित है, भक्ति है किन्तु अभक्त जो करता है वह अनुचित है | अभक्त में बहुत से अवगुण हैं क्योंकि वह कोई भी कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए नहीं करता | जिनकी ऐसी धारणा है कि संसारिक नियम भगवान से बढ़कर हैं वे कभी भी परम सत्य कि बात को अर्थात भगवान को नहीं जान सकते | ऐसे लोग निर्विशेषवादी हैं जो कभी भी भगवान, भक्ति और भक्त में भेद और अभेद की विशेषता को स्वीकार नहीं कर सकते |

       एकलव्य का क्या दोष था ? इस विषय  में जानना अति आवश्यक है | बाहरी रूप से वह गुरु भक्त था किन्तु वास्तव में वह अपने ही गुरु के प्रतिकूल चल रहा था | चाहे द्रोणाचार्य ने उसे निम्न जाति के कारण योग्य माना या उसकी परीक्षा ले रहे हों, कोई भी कारण रहा हो, जब उसके गुरुदेव कि उसे धनुर्विद्या की शिक्षा देने की इच्छा नहीं थी तो शिष्य होने के कारण उसका कर्तव्य था कि वह अपने गुरुदेव के आदेश को शिरोधार्य कर उसका पालन करे किन्तु एकलव्य ने ऐसा नहीं किया और उसकी अपनी अभिलाषा थी कि वह एक महान योद्धा बने |

       बाहरी रूप से, गुरु के बिना उसके द्वारा किया गया अभ्यास शास्त्र के अनुकूल नहीं है और न ही इससे वह वास्तव में महान बन सकता है | उसने अपने गुरु की कृत्रिम मूर्ति बनाई केवल अस्त्र-विद्या सीखने के लिए इसलिए उसका मूल उद्देश्य था अपनी इन्द्रियों को संतुष्ट करना | उसने अपने आप को अपने गुरु की इच्छा में समर्पित नहीं किया और न ही उसका उद्देश्य निष्कपट था | यदि कोई यह कहे की अंतत: एकलव्य ने बिना किसी विरोध के ख़ुशी से अपने गुरु के कठोर निर्देश का पालन तो किया किन्तु यदि हम इस विषय पर गहराई से और सूक्ष्म रूप से विचार करेंगे तो हम अनुभव करेंगे  की एकलव्य ने भौतिक नियमों को अप्राकृत व दिव्य भक्ति से श्रेष्ठ माना है | जब गुरु किसी चीज़ को दक्षिणा के रूप में देने के लिए अनुरोध करे तो शिष्य को अवश्य ही वह देना चाहिए - यह नीतिशास्त्र का नियम है जिसने एकलव्य को अपना अंगूठा काटने के लिए प्रेरित किया | एकलव्य ने यह अपनी स्वाभाविक भक्ति के साथ निवेदन नहीं किया | स्वाभाविक और सरल होना ही भक्ति का स्वभाव है |


      यदि एकलव्य के हृदय में हरि, गुरु और वैष्णवों के प्रति अहैतुकी और स्वाभाविक रूप से भक्ति होती तो गुरु द्रोणाचार्य, वैष्णव श्रेष्ठ अर्जुन और स्वयं भगवान श्री कृष्ण उसके व्यवहार से कभी भी अप्रसन्न न होते | एकलव्य की धनुर्विद्या सीखने की चेष्टा और महान बनने की उत्कंठा उसके गुरुदेव द्वारा स्वीकार नहीं की गयी | एकलव्य के ह्ड़ड़ीदय में तीव्र इच्छा थी कि वह वैष्णव श्रेष्ठ अर्जुन से महान योद्धा बने और उसने ऐसा करने का प्रयास भी किया किन्तु वैष्णवों से महान बनने कि आकांक्षा रखना भक्ति नहीं है - यह भक्ति के विरुद्ध है और यह अतिवादियों का धर्म है |(१)

      संसारिक विचारों के अनुसार बड़ा बनने कि इच्छा रखना अच्छा माना जाता है किन्तु वैष्णवों के आनुगत्य में चलना और उनका आश्रय ग्रहण करना ही भक्ति है | अर्जुन ने द्रोणाचार्य को बताया की एकलव्य अपनी निपुणता को एक महंत गुरु द्वारा साक्षात् रूप से वैदिक शिक्षा प्राप्त करने से बड़ा बताना चाहता है | यदि सौभाग्य से अर्जुन इस बात की ओर निर्देश न करता तो अव्यक्तिगत रूप से गुरु द्वारा शिक्षा प्राप्त करने का ही प्रचलन होता ओर जगत में उसी की प्रसिद्धि होती | ऐसा होने से लोग कभी भी एक महंत गुरु का आश्रय ग्रहण न करते ओर अपनी इच्छानुसार इसके प्रतिकूल, मिट्टी द्वारा निर्मित, निर्जीव गुरु की कृत्रिम मूर्ति का निर्माण कर विभिन्न वैदिक व भक्ति शिक्षाओं को प्राप्त करते और इस प्रकार नास्तिक सिद्धांतो की स्थापना हो गयी होती | इसलिए अर्जुन का एकलव्य के प्रति कोई ईर्ष्या भाव न था अपितु वास्तव में तो यह अर्जुन की एकलव्य और सम्पूर्ण जगत के प्रति अहैतुकी दया थी |

      यदि एकलव्य एक निष्कपट गुरु-भक्त होता तो कृष्ण ऐसे गुरु-भक्त का वध क्यों करते, भगवान तो हमेशा अपने भक्त की रक्षा करते हैं लेकिन अंत में वह श्री कृष्ण के हाथों से मारा गया और इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हो गया |

       श्री चैतन्य देव ने कहा है की हम बाहरी तपस्या के आधार पर किसी की भक्ति का अनुमान नहीं लगा सकते | असुर इस प्रकार कठोर तपस्या कर सकते हैं जो देवता भी नहीं कर सकते | अपने गुरु की इच्छा के विरुद्ध एकलव्य वैष्णवों से बड़ा बनना चाहता था इसलिए वह कृष्ण द्वारा मारा गया और उसने मुक्ति प्राप्त की | असुर हमेशा कृष्ण द्वारा मारे गए हैं और भगवद भक्तों की कृष्ण हमेशा रक्षा करते हैं | इसका प्रमाण है हिरण्यक्षिपु और प्रहलाद, इसलिए हमें कभी भी वैष्णवों से महान और बड़ा बनने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए और साक्षात् रूप से सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना चाहिए | एकलव्य के प्रसंग से शुद्ध भक्तों ने हमें यही शिक्षा दी है | संसारिक क्रियाओं में निपुणता प्राप्त करना गुरु-भक्ति नहीं है, वैष्णवों का आश्रय ग्रहण करना ही वास्तव में शुद्ध भक्ति है | 

पाद टिपण्णी :

१) अतिवादी एक अप्संप्रदाय है जो चैतन्य महाप्रभु जी के समय जगन्नाथ दास के अंतर्गत उड़ीसा में आरंभ हुई | 'अतिवादी' शब्द का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो सोचता है की वह बहुत बुद्धिमान है | (अति-बहुत, वादी- बुद्धिमान)

२) एकलव्य के वध का प्रसंग महाभारत के उद्द्योग पर्व के ४८वे अध्याय में पाया जाता है जहाँ श्री कृष्ण ने जरासंध की सेना से लड़ाई करते हुए उसका वध किया |

३) असुरे ओ तप कोरे, कि होए ताहार बिने मोर शरण लोइले नाही पार (चैतन्य चरितामृत, मध्य लीला २३.४६)

४) मध्वाचार्य ने अपने महाभारत तात्पर्य निर्णय के टीका में लिखा कि एकलव्य मनिमत राक्षस का अंश था |


हरि बोल !

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