मंगलवार, 7 मार्च 2023

भक्त कब भगवान को देख पाता है?

श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने दीक्षा के बारे में कहा -  

दीक्षा काले भक्त करे आत्म-समर्पण………

अर्थात् दीक्षा के समय, भक्त आत्म-समर्पण करता है। अपने आप को भगवान के प्रिय, जो गुरू जी हैं, उनके चरणों में समर्पण कर देता है।

…………… सेई काले, कृष्ण करे तारे आत्मसम……।

अर्थात् भगवान उस समय उसको अपना मान लेते हैं

वैसे तो संसार में अरबों_खरबों प्राणी हैं (मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, आदि)……इनमें से भगवान  किसको अपना मानते हैं? ..........................जो, उनके भक्त के चरणों में आत्म-समर्पित हो जाता, उसे भगवान अपने परिवार का सदस्य मान लेते हैं

इसलिए जब दीक्षा होती है, तो उससे पहले चाहे कोई भी गोत्र हो, वो बदल जाता है। दीक्षा के बाद गोत्र हो जाता है - 'अच्युत' अथवा 'कृष्ण'।

दीक्षा का अर्थ होता है - दिव्य ज्ञान।

अर्थात् मैं श्रीकृष्ण जी के दासों के दासों का दास हूँ इसे ही दिव्य ज्ञान कहते हैं 

जब व्यक्ति इस बात में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब श्रीकृष्ण उसे अपना मान लेते हैं

उस समय भगवान श्रीकृष्ण उसके शरीर को दिव्य बना देते हैं, फिर वो भक्त अप्राकृत शरीर से अप्राकृत श्रीकृष्ण का भजन करने लगता है।

जब तक हमारी इन्द्रियाँ दिव्य नहीं होंगी, तब तक हमारा भजन नहीं होगा। भगवान श्रीकृष्ण बंसी बजायेंगे, मुझे सुनाई ही नहीं देगा क्योंकि मेरे कान दिव्य ध्वनि सुन ही नहीं सकते। 

मैं भगवान के आगे खड़ा हूँ, भगवान मुझसे कुछ बोलेंगे भी, तो भी मुझे पता नहीं चलेगा क्योंकि मेरी आँखें, मेरे कान सब दुनियावी हैं भगवान तो कण-कण में हैं, मुझे दिखाई ही नहीं  देते हैं

किन्तु भगवान जब उस भक्त के शरीर को दिव्य बना देते हैं, तब ही वो भगवान को देख पाता है, उनकी बात सुन पाता है,………। 



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