श्रीकृष्ण जब कुछ बड़े हुए तो घुटनों के बल चलने लगे और कभी-कभी चरणों के बल पर भी चलते।
एक दिन मैया से चोरी-चोरी घुटनों के बल चलते-चलते घर में ही एक कमरे में घुस गए, जहाँ पर ढेर सारा मक्खन रखा हुआ था।
धीरे-धीरे मखन के बर्तन के पास पहुँचे, उसी से सहारे से खड़े हुए और हाथ बर्तन के अन्दर डाल लिया। मक्खन को ऊँगली से निकाला और दरवाज़े से दूसरी ओर मुख करके खा लिया, चुपके से। मुख इसलिए घुमा लिया ताकि कोई उन्हें मक्खन खाते हुए न देख ले।
ऐसे में एक बार मक्खन वाले कमरे में मैया थीं तो नन्हें कृष्ण गोपियों के कमरे में चले गए। वहाँ के दीपकों को बुझाने लगे, जिससे अन्धेरा सा हो गया। चारों ओर फैल रहे इस अन्धेरे को देख मैया भी बाहर चली आईं देखने के लिए कि अन्धेरा क्यों हो रहा है?
इधर बाल-कृष्ण चुपके से माखन वाले कमरे में चले गये और माखन को खा लिया।
फिर तेजी से अपने कमरे के बिस्तर पर आकर लेट गये जैसे कुछ हुआ ही न हो।
एक बार ऐसे ही माखन चोरी करके खाने लगे तो सामने खम्बे की ओर दृष्टि चली गई। श्रीनन्द जी के भवन में सभी खम्बे मणियों से जड़े थे। उन मणियों से प्रकाश आता था जिससे कमरे में रोशनी रहती थी। उन मणिमय खम्बे में श्रीकृष्ण ने देखा अपना प्रतिबिम्ब। वैसे तो जानी-जान हैं! सब कुछ जानते हैं! फिर भी बालक की लीला कर रहे हैं>
अपनी छाया को देखकर कहने लगे-- तुझे तो मैं जानता हूँ, शायद। ले तू भी मक्खन खा ले।
जब उस छाया ने मक्खन नहीं खाया तो कहने लगे-- अच्छा, कोई बात नहीं, मेरी मैया को नहीं बताना कि मैं मक्खन खा रहा था, नहीं तो वो मुझे बहुत डाँटेगी।
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