रविवार, 11 अगस्त 2019

शरणागति का अन्तर

भगवद्भक्त में शरणागति का वही मह्त्व है जो एक बड़ी सी इमारात बनाने में एक नींव का होता है, फाउन्डेशन का होता है। भक्ति में शरणागति का वही महत्व होता है जो शरीर में आत्मा का होता है। अब जैसे आपने भगवान को भोग लगाने के लिये बहुत कुछ बनाया, किन्तु आपमें भगवान के प्रति कोई भाव ही नहीं है, तो भगवान भोग स्वीकार नहीं करते। भगवान वस्तु को भूखे थोड़े ही हैं , वे तो भाव के भूखे हैं। आत्मा के बिना तो शरीर चलता ही नहीं है, ऐसे ही शरणागति के बिना भगवान भक्त की क्रियायें स्वीकार ही नहीं करते हैं। अभक्त व भक्त की क्रियायों में विशेष अन्तर नहीं होता है किन्तु शरणागति का अन्तर होता है।  क्रियायें वही होती हैं,  किन्तु शरणागति जब तक नहीं होगी, भगवान ध्यान नहीं देते। जैसे बिना नींव के भवन कभी भी गिर सकता है उसी प्रकार शरणागति के बिना कीर्तन करना, कथा सुनना, गीता पढ़नी, आदि कब बन्द हो जायेगा, पता ही नहीं चलेगा। शरणागति होती है बुनियाद, नींव।  शरणागति क्या है?  श्रील भक्ति विनोद ठाकुरजी लिखते हैं

मानस देह गेह जो किछु मोर…॥

हे नन्दननन्दन श्रीकृष्ण! मैंने अपन शरीर, घर-बार सब कुछ समर्पित दिया है आपको। वैसे तो यह सब उन्हीं का ही है, किन्तु हम अज्ञानवश, अभिमानवश, मूर्खतावश इन्हें अपना समझते हैं लेकिन जो सही ज्ञान को जान जाता है, अर्थात् किसी भगवद् भक्त के सान्निध्य में रहकर जब पता चलता है कि ये कुछ भी मेरा नहीं है, ये शरीर भी मेरा नहीं है, वो भी छोड़ कर जाना पड़ता है तो ही श्रीठाकुर की बात समझ में आती है। मेरा समर्पण हुआ कि नहीं, यह तो श्रील ठाकुर के भजनों को बोलने से पता लग जाता है।

सम्पदे विपदे जीवने मरणे……
बहुत सम्पदा मिली अथवा कंगाल हो गये कोई फर्क नहीं पड़ता। दीर्घ जीवन मिला अथवा मृत्यु आ गई, किसी प्रकार का भय नहीं, ये शरणागति का भाव है। जैसा आप चाहेंगे वैसा ही करूँगा, मैंने आपके चरणों को वरण कर लिया…अब सोचने का काम आपका है।

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के संस्थापक आचार्य श्रील भक्ति दयित माधव गोसवामी महाराज 'विष्णुपाद' जी के साथ कोई चर्चा चल रही थी कि अगर ऐसा हो गया तो क्या होगा? उन्होंने आराम से बोला -- भजिते
भजिते यह देह छाड़िबो…। इसमें मरने से क्या डरना? भगवान का स्मरण करते-करते, उनकी बात बोलते-सुनते अगर समय आ जायेगा तो शरीर छोड़ देंगे…। यह है भक्ति की स्थिति।

श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्राक्तन आचार्य श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने एक बार कहा जब तक मेरी आँख खुली है, अपने गूरू जी की संस्था का कोई नुक्सान नहीं होने दूँगा। हर स्थिति में गुरू जी के लिये, गुरु की संस्था के लिये, उनकी आज्ञा पालन करने के लिये कार्य करता रहूँगा…………कोई चिन्ता नहीं कि जीवन है, या मृत्यु, धन है कि नहीं, ……………

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें