सोमवार, 14 सितंबर 2015

सिखपंथ भी भगवान् की अनन्य भक्ति को सर्वोपरि मानता है।

विश्व के किसी भी प्रामाणिक धर्म के समान सिखपंथ भी भगवान् की अनन्य भक्ति को सर्वोपरि मानता है।

मेरे लिए कृष्णभक्ति को स्वीकारना कठिन नहीं थाकिन्तु उसमें बने रहना चुनौतीपूर्ण अवश्य रहा। मेरे माता-पिता सिख थे और मेरा विवाह एक हिन्दू-पंजाबी परिवार में हुआ था। रंदीप आनंद से राधिका कृपा देवी दासी के रूप ें मेरा परिवर्तन मेरे जीवन का सर्वाधिक निणार्यक क्षण था। जीवन के उस दोराहे पर मैं सही मार्ग चुनने के लिए थोड़ी आशंकित थी। प्रेरणासाहस और दृढ़ता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मुझे प्रश्नों,  शंकाओं और तर्कों का सामना करना थाजो अकसर पराजित करने की भावना से प्रस्तुत किये जाते हैं। पराजित  होने के लिए कृतसंकल्प मैंने एक माधान खोजने का प्रयास किया जो सभी को शांत कर सकेक्योंकि मै दो विभिन्न मानवनिर्मित धर्मों के बीच खड़ी थी। मेरे परमगुरुदेव श्रील ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद और अपने गुरु रमपूज्यपाद श्रील गोपालकृष्ण गोस्वामी महाराज जी की कृपा से मैंने शास्त्रों के समुद्र में छलांग लगा दी।

मैं श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब (सिखों का ग्रन्थऔर भगवद्गीता यथारूप के अध्ययन में गंभीरता से तल्लीन हो गई। मैंने एकऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए श्री श्रीराधा-श्यामसुन्दर से प्रार्थना की जिससे मैं सभी विरोधों  संतुष्ट कर सकूँ। उन्होंनेमेरी प्रार्थनायें सुनी और दोनों शास्त्रों को गहराई से समझने का ज्ञान प्रदान किया। अब मैं स्पष्ट रूप से सभी शंकाओंऔरसंदेहो को शास्त्रों के आधार पर प्रामाणिकता से दूर कर सकती 
हूँ।

यहाँ कुछ ऐसे ही विचार और उद्दरण हैं जो मुद्दे को स्पष्टता से प्रस्तुत करते हैं।

निम्नलिखित रहस्यमयी पंक्तियाँ सिखों के प्रमुख ग्रन्थ श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब से हैं। यह उन श्लोकों का संकलन है जिन्हेंहरिगोविन्दराम और गुरु की प्रशंसा में गाया गया है। ग्रन्थ मनुष्य को "सिख" (शिष्यबनने की सलाह देता है,िससे भगवान् के चरणकमलों का आश्रय मिल सके। श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब विभिन्न शास्त्रीय रागों मे काव्य रूप में रचितहै।
सिखों के पहले गुरु गुरुनानक दे रामकली महला  दखणी ओअंकारी ें कहते हैं -

इक ओंकार सत्गुरु प्रसाद
ओंकार ब्रह्मा उतपति
ओंकारू कीआ जिनि चिति
ओंकारि सैल जुग भए
ओंकारि वेद निरमए
ओंकारि सबदि उधेर
ओंकारि गुरमुखि तेर
ओनम अखरसुणहु बीचारू
ओनम अखर त्रिभवण सारू
सुणि पांडे किआ लिखहु जंजाला
लिखु रामनाम गुरमुखि गोपाला

अनुवाद

भगवान् एक हैजिसे गुरु की कृपा से जाना जाता है। परब्रह्मा परमात्मा से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है। उन्होंने परब्रह्मा कोअपने चित्त में धारण किया। परब्रह्मा परमात्मा ही पर्वतों और युगों का निर्माता है। उन्ही  ही वेद आये हैंऔर उन्होंने शब्द द्वारा संसार का उद्दार किया है। ओंकार उसे मुक्त करता है जो गुरु के निर्देशों का पालन करता है। ओंकार शब्द को सुनोऔर उसपर विचार करोयह शब्द ही तीनों जगत का सार है।  पंडित सुनोक्यों तुम संसार के जंजाल  बारे में क्यालिखते हो। लिखना ही है तो गुरु द्वारा राम और ोपाल के बारे में लिखो जो गुरु की कृपा से प्राप्त होते हैं।
यहाँ वर्णित ओंकार स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण से अभिन्न हैभगवद्गीता में श्रीकृष्ण घोषित करते हैं प्रणवसर्ववेदेषु - "मैं हीवैदिक मन्त्रों का ओउम् हूँ।"

ब्रह्माजी के स्त्रोत श्रीकृष्ण

श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब यह भी वर्णन करती है कि श्रीकृष्ण ही ब्रह्माजी के स्त्रोत हैं -
नाभि कमल ते ब्रह्मा उजपे बेद डहि मुखि कंठि सवारि
ता को अंतु  जाई लखणा आवत जात रहै गबरि
प्रीतम किउ बिसरही मेरे प्राणअधार
जाकी भगति करहि जनपूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि
रवि ससि दीपक जाके त्रिभवणि एका जोति मुरारि
गुरमुखि होई सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैइयाँ अंधारि

अनुवाद

भगवान् विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से प्रकट होने के पश्चात ब्रह्माजी ने अपना कंठ संवारकर वेदों को ग्रहण किया।किन्तु बहुत बार ऊपर-नीचे आने-जाने के पश्चात भी वे   भगवान् विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से प्रकट होने के पश्चात ब्रह्माजी ने अपना कंठ संवारकर वेदों को ग्रहण किया। किन्तु बहुत बार ऊपर-नीचे आने-जाने के पश्चात भी वे उस कमल की डंडी का आदि अंत नहीं पा पाये। हे प्रिये भगवन! कोई आपको कैसे भूल सकता है जिन पर सब कुछ आश्रित है? भक्त अपनी भक्ति में मगन रहते हैं। ऋषि-मुनि अपने गुरुओ के निर्देशानुसार भगवान् की सेवा में संलग्न रहते हैं। सूर्य चन्द्रमा और तारे सभी आपके है और तीनो लोकों में केवल मुरारी ही व्यापत हैं ।केवल वह जो गुरु के निर्देशों का पालन करता है शुद्ध  हो पता है, किन्तु जो मानसिक कल्पनाये करता है वह केवल अन्धकार में ही भ्रमण करता है। 

श्रीमदभागवतम के तीसरे स्कन्द के आठवे अध्याय में भी ब्रह्माजी की उत्पत्ति का समान विवरण पाया जाता है। 

श्रीकृष्ण का सुन्दर रूप 

निम्नलिखित पंक्तियाँ स्पष्टता से परम भगवान् के रूप का वर्णन करती हैं और कल्पना करने की सम्भावना नहीं छोडती।

कंवल नैन मथुर बैन कोटि सैन संग सोभ कहत 
मा जसोद जिसहि दही-भातु खाहि जीउ।
देखि रुपु अति अनूपु मोह महामग भई
किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ।
काल कलम हुकमु हाथि कहहु कउनु मेटि सकै
ईसु ब्रह्मु ग्यानु ध्यानु धरत हीए चाहि जीउ ।
सति साचु श्रीनिवासु आदि पुरुखु सदा तुही 
वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ।।
रामनाम परम धाम सुध बुध निरीकार बेसुमार 
सरबर कउकाहि जीउ ।
सुधर चित भगत हित भेखु धरिओ हरनाखसु 
हरिओ नख बिदारी जीउ ।
संख चक्र गदा पदम आपि आपु कीयो छदम 
अपरंपर पारब्रह्म लखै कउनु ताहि जीउ ।
सति साचु श्रीनिवासु.....।।
पीत बसन कुंद दसन प्रिया सहित कंठमाल 
मुकत सीस मोरपंख चाहि जीउ ।
बे वजीर बड़े धीर धरम अंग अलख अगम 
खेलु कीआ आपणै उछाहि जीउ ।
अकथ कथा कथी न जाइ तीनि लोक रहिआ 
समाइ सुतह सिध रुपु धरिओ साहन कै साहि जीउ ।
सति साचु श्रीनिवासु.....।।

अनुवाद 

उनके नेत्र कमल से हैं, वचन मधुर है, और वे करोड़ों जीवों के साथ शोभते हैं। वे वही श्रीकृष्ण है जिसे यशोदा दही-भात खाने के लिए दुलारती है। उनके अति अनुपम रूप को देख और उनके नुपूरों और कंकणी की मोहक ध्वनि से मंत्रमुग्ध वे (यशोदा) उनके साथ खेलती है। हे भगवन! वह कलम जो मृत्यु का हुकुम लिखती है आपके हाथों में है। बताओ! कौन बाख सकता है इससे? शिवजी और ब्रह्माजी भी तुम्हारे दिए ज्ञान-ध्यान को हृदय में धारण करना चाहते है। आप परम सत्य हैं। सौभाग्य की देवी लक्ष्मी जी आपकी सेविका हैं और आप आदि पुरुष परमब्रह्मन हैं और मैं आपकी बलिहारी जाता हूँ आप वाहेगुरु वाहेगुरु वाहेगुरु हैं।

राम नाम परम धाम है। आप शुद्ध बुद्धि हैं। आप असीमित है और कोई भी रूप ले सकते है। कौन आपकी तुलना कर सकता है? अपने भक्त के प्रेमवश आपने वेश बदल कर अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। तुम्ही शंख, चक्र, गदा और पदम धारण करने वाले देवाधिदेव हो, और तुम्हीं राजा बलिको छलने वाले वामन रूप हो। हे श्रीनिवास आप परम सत्य हैं......। तुम पीतवस्त्र धारण करने वाले हो, तुम्हारे कुंदकलियों सरीखे दांत हैं और तुम अपने प्रिया (श्रीमती राधारानी) सहित आनंद लेते हो। तुमने कंठ में वैजयंती माला धारण की है और तुम्हारे मुकुट में मोरपंख सुशोभित  है। तुम सबसे धीर हो। तुम्हे सलाह के लिए किसी मंत्री की आवश्यकता नहीं है। तुम अगम्य हो और हे प्रियेश्वर! तुम सम्पूर्ण सृष्टि के सृजनकर्ता हो। हे राजाधिराज, प्रिय, तुम्हारी कथा अकथ्य है; तुम तीनों जगत में व्याप्त हो और तुम स्वेच्छा से कोई भी रूप धारण कर सकते हो।

हे श्रीनिवास तुम परम सत्य हो......।

वाहेगुरु का अर्थ 

गुरु ग्रन्थ साहिब के प्रष्ठ १४०२ के स्वय्या महला में उपर्युक्त पंक्तियाँ उदधत हैं जो परम भगवान् का वर्णन और उनका गुणगान करती हैं। यहाँ भगवान् को वाहेगुरु के नाम से पुकारा गया है।

वाहेगुरु शब्द के अर्थ का सुन्दरता से वर्णन किया है भई गुरुदास ने, जो सिखों के पांचवे गुरु अर्जुनदेव जी के समकालिन थे। जब पांचवे गुरु ने ग्रन्थ साहिब का उच्चारण किया अर्जुनदेव जी ने हि उससे लिखा।

भई गुरुदास ने एक पुस्तक भी लिखी है "वार", जिसमें वह वाहेगुरु मन्त्र का विस्तार में वर्णन करते हैं।

अपनी पुस्तक के वार १, पौरी ४६ में वे कहते हैं -
सतिजुगि सतिगुर वासदेव ववा विसना नामु जपावै ।
दुआपरि सतिगुर हरीक्रिशन हा हा हरि हरि नामु जपावै ।
त्रेते सतिगुर राम जी रा रा राम जपे सुख पावै ।
कलिजुगि नानक गुर गोविन्द गगा गोविन्द नाम अलावै ।
चारे युगी चाहु युगी पंछी विच जाइ समावै ।
चारो अक्षर इक कर वाहेगुरु जप मन्तर जपावै ।

अनुवाद

सत्ययुग में भगवान् को प्राप्त करने के लिए वासुदेव के रूप पर ध्यान की संस्तुति की जाती थी। वाहेगुरु शब्द का 'व' भगवान् विष्णु का स्मरण कराता है। द्वापर युग में हरि कृष्ण प्रकट हुए; वाहेगुरु ने अक्षर 'ह' हरि का स्मरण कराता है। त्रेता युग में राम प्रकट हुए; वाहेगुरु का 'र' अक्षर श्री राम का स्मरण कराता है। कलियुग में नानक गुरु के रूप में सभी से गोविन्द नाम का कीर्तन करवाने के लिए आये। वाहेगुरु का 'ग' अक्षर गोविन्द का स्मरण करवाता है।
इस प्रकार चारों युगों का यहाँ समावेश है। इन चार अक्षरों ने मिलकर ही इस मंत्र (वाहेगुरु) को बनाया है ।

हरिनाम 

गुरु ग्रन्थ साहिब में हरे कृष्ण महामंत्र, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम राम राम राम हरे हरे, से अभिन्न मन्त्रों  द्वारा भगवान् सभी शास्त्र घोषणा करते हैं कि कलियुग में भगवदप्राप्ति  का एकमात्र भगवान् के नामों का जप है। हरिनाम का गुणगान करते सिखों के दो ग्रन्थ, सुखमनी साहिब और जपुजी साहिब ने महिमाओं का गुणगान किया गया है - ''हरि हरि हरे....हरे हृषिकेश हरे....., हरे गोविन्द हरे गोविन्द....., हरे नर नर हरे नरहरे ......।'' गुरु ग्रन्थ साहिब के अनुसार इनका कीर्तन सर्वोच्च भक्ति है।

वार, राग कनरा महला ४ में ग्रन्थ साहिब कहती है -
रामनाम निधान है हरि गुरमत रख उर धारद 
दासन दास होय रहु हउ मय भिकी आ मार
जनम पदारथ जीति आ कदाय न अवै हार 
धन धन वदभागी नानक जिन गुरमत हरि रस सार 
गोविन्द गोविन्द गोविन्द हरि गोविन्द गुनी निधान 
गोविन्द गोविन्द गुरमत धिआइ एता दरगाह पाइआ मान 
गोविन्द गोविन्द गोविन्द जप मुच उजला पार धान 
......सभ कहु मुखहु हरि हरि हरे हरि हरि हरे हरि बोलत सभ पाप  लहोगिया

अनुवाद

रामनाम परमधन है, गुरु के इस निष्कर्ष को सदा अपने मन में धारण करो।
उनके (श्रीराम के) दासों के दास बनकर रहो, और हृदय में बैठे मिथ्या अहंकार के विष को मारो। इस प्रकार तुम जीवन की सम्पति प्राप्त करोगे और कभी हार का सामना नहीं करोगे।
नानक कहते है,'' जिन्हें कृपा प्राप्त है वे महान से भी महानतम हैं और वे श्रीगुरु के निर्देशों में श्रीहरि रुपी अमृत का अस्वादन करते हैं।
गोविन्द गोविन्द गोविन्द के उच्चारण से व्यक्ति को शुद्धता और गुण प्राप्त होते हैं......
सभी मिलकर हरि (श्रीकृष्ण) और हरे (उनके अंतरंगा शक्ति) के नामों का कीर्तन करो। इससे सभी पूर्व पाप क्षमा हो जायेंगे।
आगे कहा गया है -
हरि हरि हरि हरि नाम है गुरमुखी पावै कोइ ।
हउमै ममता नासु होइ दुरमति कढै धोइ ।
....सभि कहहु मुखहु रिखीकेसु हरे रिखीकेसु
हरे जितु पावहि सभफल फलना।

अनुवाद

हरि-हरिनाम ऐसी महान संज्ञा है कि कोई विरला ही गुरमुख जीव इसे प्राप्त कर पाता है। इसकी उपलब्धि से अहम् भाव और ममता नष्ट होती है, दुर्मति धुल जाती है।.... सब मिलकर हृषिकेश (श्रीकृष्ण का एक नाम) और हरे ( उनकी नित्य संगिनी) के नामों का कीर्तन करें जो समस्त फल प्रदान करने वाले हैं।

वैष्णव 
शास्त्रों के अनुसार एक वैष्णव कि चेतना समस्त मनुष्यों से सर्वश्रेष्ठ होती है। ग्रन्थ साहिब में भी इसी कि संस्तुति की गई है। गुरु अर्जुन देव द्वारा रचित सुखमणि साहिब मंत्र के ६ वे श्लोक (अष्टपति) में वैष्णव शब्द को सुन्दरता से परिभाषित किया गया है- ''जिसकी परमगति निश्चित है '' ।
वहाँ कहा गया है -
मिथिआ नाही रसना परस ।
मन महि प्रीति निरंजन दरस।।
पर त्रिअ रुपु ने देखौ नेत्र ।
साध की टहल सतसंगि हेत ।।
करन न सुनै काहू की निंदा ।
सभते जानै आपस कउ मंदा ।।
गुरु प्रसादि बिखिआ परहरै ।
मन की बासना मन ते  टरै ।।
इंद्रीजित पंच दोख ते रहत ।
नानक कोटि मधे को ऐसा अपरस ।।
बैसनो सो जिसु ऊपति सुप्रसंन ।
बिसन की माइया ते होई भिंन ।।
करम करत होवै निहकरम ।
तिसु बैसनो का निरमल धरम ।।
काहू फल की इछा नही बाछै ।
केवल भगति कीरतन संगि राचै ।।
मन तन अंतरि सिमरन गोपाल ।
सभ ऊपरि होवत किरपाल ।।
आपि द्रिडै अवरह नामु जपावै ।
नानक ओहु बैसनो परम गति पावै ।।
भगउती भगवत भगति का रंगु ।
सगल तिआगै दुसट का संगु ।।
मन ते बिनसै सगला भरमु ।
करि पूजै सगल पारब्रह्मु ।।
साद संगि पापा मलु खोवै ।
तिसु भगउती की मति उत्तम होवै ।।
भगवंत की टहल करै नितनीति ।
मनु तनु अरपै बिसन परीति ।।
हरि के चरण हिरदै बसावै ।
नानक ऐसा भगउती भगवंत कउ पावै ।।

अनुवाद 

वैष्णव वह है जिसकी जिव्हा पर मिथ्या का स्पर्श तक नही होता ।  जिसे मन में भगवान् के दर्शनों की उत्कंठा रहती है। जिसके नेत्र अन्य स्त्री की सुन्दरता को नहीं देखते। जो साधुओं की सेवा करता है और उनके संग में रहता है। जो कानो से किसी की निंदा नहीं सुनता। जो स्वयं को सबसे निपुण मानता है। गुरु की कृपा से वह बुराइयों को त्याग देता है। उस विवेकी पुरुष के अंत: करण से सभी मानसिक वासनाये समाप्त हो जाती हैं। वह इन्द्रियों को जीतकर पाँचों दोषों से मुक्त होता है। नानक कहते है, ''करोड़ों में कोई एक ही ऐसा निर्दोष होता है'' ।

वैष्णव वह है जिससे भगवान् प्रसन्न हो। वह भगवान् द्वारा रचित माया से परे रहता है। जो करम करते हुए भी निष्काम (फल की कामना से रहित) होता है। उसी वैष्णव का धर्म सच्चा है। जिसे फल की इच्छा नही होती वह भगवान् की शक्ति और कीर्तन में मगन रहता है। उसके मन और शरीर में सदा गोपाल निवास करते है। वह सभी के प्रति कृपालु होता है। वह स्वयं नाम जपता है और अन्यों को भी वैसा करने के लिए प्रेरित करता है। नानक कहते है ''ऐसा वैष्णव परमगति को प्राप्त करता है'' ।

भगवान् का भगत वहीँ है जिस पर भक्ति का रंग चढ़ा हुआ है। जो सभी प्रकार के
दुष्टों का संग त्याग करता है। जिसके मन से सभी भ्रमों का नाश हो गया है। जो परब्रह्म भगवान् को सब जगह, सभी में विद्यमान जान कर उसकी उपासना करता है। जो साधुओं के संग में संसारी पाप-विकारों की मैल धो डालता है। उस भक्त की बुध्दि अत्यंत उत्तम होती है। वह सदैव भगवान् की सेवा करता है। वह अपने मन और शरीर को भगवान् विष्णु के प्रेम के प्रति समर्पित करता है। वह सदैव श्रीहरि के चरण कमलों को अपने हृदय में धारण करता है। नानक कहते है, ''सौभाग्यशाली ऐसा भक्त भगवान् को प्राप्त करता है''।

इन साक्षात्कारों ने सभी विरोधी भावनाओं को शांत कर दिया है; और इस प्रकार एक नई सोच को जनम दिया है। आश्चर्य की बात नहीं है कि वैष्णव संस्कृति ही सिख पंथ की बोली है। इस प्रकार के साहित्यक प्रयत्न दीवारों को तोड़कर ऐसे सम्बन्ध बनाते हैं है जिससे धार्मिक सदभावना, शान्ति और वैश्विक भाईचारा स्थापित होता है, और निरसंदेह उसकी नीव कृष्ण भावना है।

राधिका कृपा दासी प.पू. गोपाल कृष्ण गोस्वामी की शिष्या है। वे विश्व के विभिन्न भागों में भ्रमणकर कृष्ण भावना का प्रचार करती है । यह लेख उनकी 'वैष्णव टीचिंग्स इन सिक्खिज्म'' नामक पुस्तक से संकलित है।

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