श्रीश्री गोपाल चम्पु के अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर की अठाइसवीं चतुर्युगी के द्वापर युग में भाद्र मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि, बुधवार के दिन चन्द्र के उदय होने पर हर्षण नामक योग में दोष-रहित रोहिणी नक्षत्र में भगवान श्रीनन्दनन्दन आये।
उस समय युग के आदि - देवतागण अपने-अपने उपहार लेकर श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए वहाँ उपस्थित थे। नन्द नन्दन श्रीकृष्ण का नीलकमल के समान मुख, सिन्दूर रंग के होंठ, सबको मनोहर लग रहा था। श्रीकृष्ण के आने के बाद ही योगमाया देवी ने जन्म ग्रहण किया। आठवें महीने में श्रीमति देवकी और श्रीमती यशोदा ने लगभग एक ही समय प्रसव किया।
श्रीवसुदेव व माता देवकी के हृदय में श्रीकृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन हुआ और वही रुप प्रकट हुआ उनके सामने। श्रीब्रजेश्वर व माता यशोदा के हृदय में द्विभुज रूप दिखा और उनके सामने दो भुजा वाले श्रीकृष्ण आये।
जब अत्याचारी कंस के भय से श्रीमती देवकी ने दो-भुजा वाले श्रीकृष्ण को देखने की इच्छा की तो वही द्विभुज रूप (जो यशोदा माता के यहाँ
प्रकटा था), देवकी माता की शैय्या पर प्रकट हो गया और चतुर्भुज रूप उसके अन्दर समा गया। यह सब भगवान की शक्ति योगमाया द्वारा सम्पादित हुआ।
प्रकटा था), देवकी माता की शैय्या पर प्रकट हो गया और चतुर्भुज रूप उसके अन्दर समा गया। यह सब भगवान की शक्ति योगमाया द्वारा सम्पादित हुआ।
यह सर्वविदित है कि नन्दनन्दन श्रीकृष्ण दो बाजुयें वाले हैं जबकि उनके अंश के अंश वसुदेव नन्दन कृष्ण चतुर्भुज हैं।
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