शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

त्याग को भी त्यागना होगा

एक बार परम पूज्यपाद श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी जी महाराज, प्रवचन कर रहे थे।

प्रवचन के दौरान आपने बताया कि हमें भोग की भावना को त्याग तो करना ही होगा, त्याग की भावना को भी त्याग करना होगा। अपना प्रवचन पूरा करके आप अपने कमरे में चले गये।

प्रात: स्मरणीय परम पूज्यपाद श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने बताया कि मैं तब नया-नया मठ में आया था और तब मेरा नाम कृष्ण बल्लभ दास ब्रह्मचारी था। मैं ये बात सुन कर हैरान हो गया। क्योंकि 
घर में अपने पिताजी से मैंने सुना था कि गीता त्याग सिखाती है। इसलिये मेरे मन में यह जानने कि उत्सुकता हुई कि भोगों को त्यागना तो ठीक है, परन्तु त्याग को कैसे त्यागेंगे?  

इस जिज्ञासा को लेकर मैं पूज्यपाद श्रीधर महाराजजी के कमरे में गया।

मैंने उनको प्रणाम किया व विनम्र भाषा में एक प्रश्न पूछने की आज्ञा मांगी। 


अनुमति मिलने पर मैंने पूछा - महाराज जी ! आपने अभी-अभी अपने प्रवचन में बताया कि भोग को त्यागो और त्याग को भी त्यागो। भोग के त्याग को तो मैं समझता हूँ किन्तु त्याग को कैसे……?

मैंने अपना वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।

आपने मुस्कुराते हुये कहा - तुम्हारा क्या है, जो तुम त्यागना चाहते हो। सब कुछ तो श्रीकृष्ण का है। ये शरीर, मन, बुद्धि, इत्यादि, सब के स्वामी तो श्रीकृष्ण ही हैंं। यहाँ तक कि ये संसार, इसकी वस्तुएँ, सब कुछ उन्हीं की तो हैं। जो हमारा है ही नहीं उसको हम कैसे त्याग सकते हैं ? 


हमें संसारिक 'मैं ' और 'मेरेपन' की भावना से ऊपर उठना होगा। हमें हर प्रकार से श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये कार्य करना होगा। इन सब वस्तुओं को तथा अपने आप को उनके स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा में लगाने से ही हमारा कल्याण होगा।


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