प्राकृत विज्ञान का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह अपने
अधिकार से बाहर के भी सब तत्त्वों को जानना चाहता है। अप्राकृत-तत्त्व में उसका
अधिकार नहीं है, तथापि निर्लज्जा की भाँति उस दिशा में भी टाँग अड़ाता है तथा उसके
सम्बन्ध में अतिश्य क्षुद्र एवं भ्रमपूर्ण सिद्धान्त अपनाता है और अन्त में स्वयं
भी विकृत होकर अर्थात् अप्राकृत तत्त्व नामक कुछ है ही नहीं -- ऐसी धारणा बना कर उस
विषय से सर्वथा अलग हो जाता है। सत्संग के प्रभाव से जीव के हृदय में स्वाभाविक
दैन्य का प्रकाश होता है। दैन्य के आधार पर ही श्रीकृष्ण की कृपा होती है। इस कृपा
से ही अप्राकृत तत्त्व में अधिकार पैदा होता है। केवल भौतिक विचार या भौतिक ज्ञान
के द्वारा अप्राकृत तत्त्व को कदापि नहीं जाना जा सकता। - श्रील भक्ति विनोद ठाकुर

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