एक माँ अपने बच्चे ब्च्चे को ढूँढ रही थी। इधर-उधर आड़ोस-पड़ोस में सब जगह देखा किन्तु मिला नहीं। बहुत परेशान हो गई। इतने में बच्चा घर आ गया। माँ ने झट से उसे गोद में उठाया व लाड़ लड़ाने लगी। कुछ देर में वो संभली और बड़े प्यार से अपने बच्चे से बोली- कहाँ गया था? मैं इतनी देर से परेशान हो रही थी।
बच्चे ने बड़े भोलेपन से उत्तर दिया- माँ! मैं कहीं नहीं गया था। मैं तो वो सामने वाली दुकान पर गया था।
माँ- वहाँ क्यों गया था?
बच्चा- माँ! मैं तो वहाँ पर कुछ देर के लिए ही गया था, पर वहीं पर समय लग गया।
माँ- क्यों गया था वहाँ पर? क्या लेने गया था उस दुकान पर?
बच्चा- माँ! मैं गोंद लेने गया था।
माँ- गोंद? क्यों क्या काम है उससे?
बच्चा- माँ! वो जो कप टूट गया था, न सुबह। मैं उससे उस कप को जोड़ूँगा। और फिर जब तुम बूढ़ी हो जाओगी, तब उस कप में तुम्हें चाय पिलाया करूँगा।
माता यह सुनकर कांप गई। उसके तो होश ही उड़ गये। सन्न रह गई वो यह सुनकर। उसे समझ में ही नहीं आया कि वो बच्चे को क्या कहे?
फिर कुछ देर चुप रहकर उसने बच्चे को अपने पास किया, प्यार से पुचकारा, उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली- बेटा, ऐसे नहीं बोलते। ऐसा नहीं करते। बड़ों का सम्मान करते हैं। देखो न, पापा तुम्हारे लिए कितनी मेहनत करते हैं। सुबह ही आफिस चले जाते हैं, शाम को घर आते हैं, ताकि तुम्हें अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें, तुम्हें खिलौने आदि दिला सकें,.......................मम्मी भी तुम्हारे लिए दिन-रात लगी रहती है। तुम्हारी शरारतें भी सहन करती है। कुछ नहीं कहती। ये सब हम इसलिए कर रहे हैं तुम्हारे लिए ताकि जब तुम बड़े हो जाओ तो हमारी सेवा करो। हमारी रक्षा करो। हमें प्यार से रखो अपने पास। बोलो, मैं ठीक बोल रही हूँ, न?
बच्चा- माँ! क्या दादा-दादी ने नहीं यही सोचा होगा? आज दादी से वो चाय का कप टूट गया था, तुम कितना ज़ोर से चिल्लाई थी उनके ऊपर। कितना गुस्सा किया था आपने। इतना गुस्सा कि दादा जी को दादी के लिए आपसे माफी माँगनी पड़ी थी। पता है माँ, जब तुम सो गई थी कमरे में जाकर, दादी बहुत देर तक रोती रही। पता है आपको? और मैंने न वो कप संभाल लिया है। मैं जो गोंद लेकर आया हूँ उससे उस कप को जोड़ूँगा।
माँ के तो होश ही उड़ गये ये सुनकर। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे या क्या करे? फिर भी धीरे से बोली- बेटा, मैं भी तब से अशान्त हूँ। मुझे भी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या बोल बैठी।
हम जो करते हैं, बच्चे वही शिक्षा लेते हैं, हमारे आचरण से ही वे सीखते हैं।
हमारे समाज़ में ये स्थिति हो गई है कि हम बड़े-छोटों का लिहाज ही भूल गये हैं। रूपया-पैसा ज़रूरी है, इसमें कोई शक नहीं किन्तु इतना भी ज़रूरी नहीं कि धन के लिए बड़ों का सम्मान ही करना छोड़ दें।
शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि धारधार अस्त्र का घाव भर जाता है लेकिन, वाणी का घाव नहीं भरता।
हमें याद रखना चाहिए कि माता-पिता के कारण ही हम समाज़ में इतना सम्मान पा रहे हैं। ये ही वे पिता हैं, जो हमारे द्वारा किये गये नुक्सान को हँस कर टाल देते थे। ये ही वो माता है जो हमारे आँसु रोकने के लिए औरों से भिड़ जाती थी।
आज जब वे वृद्ध हो गये हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि हम उनकी सेवा करें।
बड़ों के आशीर्वाद से धन, बल, आयु, यश, आदि सब में वृद्धि होती है, उनका सम्मान करना चाहिए।
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